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(३३) गुरुके आसनको, पाव आदि लगनेपर खमासना . दे
अपना अपराध न खमावे तो शिष्यको आशातना लगती है.
इस तेतीस ( ३३ ) आशातना तथा अन्य भी आशातनासे बचना चाहिये. क्योंकि आशातना बोधिबीजका नाश करनेवाली है. गुरुमहाराजका कितना उपकार होता है, इस संसारसमुद्रसे तारनेवाले गुरुमहाराज ही होते है. ॥ इति दशाश्रुतस्कन्ध तीसरा अध्ययनका संक्षिप्त सार ।
(४) चौथा अध्ययन. आचार्य महाराजकी आठ संप्रदाय होती है. अर्थात् इस आठ संप्रदाय कर संयुक्त हो, वह आचार्यपदको योग्य होते है. वह ही अपनी संप्रदाय (गच्छ ) का निर्वाह कर सक्ते है. वह ही शासनकी प्रभावना-उन्नति कर सक्ते है. कारण-जैन शासनकी उन्नति करनेवाले जैनाचार्य ही है. पूर्वमें जो बडे २ विद्वान् आचाय हो गये, जिन्होने शासनसेवाके लिये कैसे २ कार्य किये है, जो आजपर्यंत प्रख्यात है. विद्वान् प्राचार्यों बिना शासनोन्नति होनी असंभव है. इसलिये आचार्यों में कौन २ सी योगता होनी चाहिये और शास्त्रकार क्या फरमाते है, वही यहांपर योग्यता लिखी जाती है. इन योग्यताओंके होनेही से शास्त्रकारोंने आचार्यपदके योग्य कहा है. यथा (१) आचार संपदा, (२) सूत्र संपदा, (३) शरीर