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इसमे जैन समाजको बडाही लाभ हुवा और यह प्रवृत्ति भव्यात्मावों के बोधके लिये ही की गईथी.
इस लिये अब क्रमशः सम्पूर्ण सूत्रोंको भाषाद्वारा प्राकाशित करवा दिया जाय तो विशेष लाभ होगा, इसी हेतुसे इन सूत्रोंकी भाषा की जाती है. इसको लिखते समय हमको यह भी दाक्षिण्यता न रखनी चाहिये कि सूत्रोंमें बडे ही उच्च कोटीसे मूर्तिमार्गको बतलाया है. और इस समय हमसे ऐसा कठिन मार्ग पल नहीं सक्ता, इसलिये इन सूत्रोंकी भाषा प्रकाशित न करे. आज हम जितना पालते हैं, भवि-. प्यमें मंद संहननवालोंमे इतनाभी पलना कठिन होगा, तथापि सूत्र तो यही रहेंगे. शास्त्रकारोंने यह भी फरमाया है कि "जं सकतं करह जं न सकंतं सहह, सद्दह माणे जीवो पावई सासयठाणं " भावार्थजितना बने उतना करना चाहिये, अगर जो न बन सके उसके लिये श्रद्धा रखनी चाहिये, श्रद्धा रखनेहीसे जीवोंको शाश्वत स्थानकी प्राप्ति हो सक्ती है.
उत्कृष्ट मुनिमार्गका जो प्रतिपादन आचारांग, सूत्रकृतांग, प्रश्नव्याकरण, ओघनियुक्ति, पिंडनियुक्ति आदि सूत्रोंके छपनेसे जाहेर हो चुका है, तो फिर दूसरे सूत्रोंका तो कहनाही क्या ? - कितनीक तो रुढी भ्रांतियें पड़ जाती है. अगर उसे दीर्घ द्रष्टी• ‘से देखा जाय तो सिवाय नुकशानके दूसरा कोइ भी लाभ नहीं है.
हम हमारे पाठक वर्गसे अनुरोध करते हैं कि आप एक दफे