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प्रवचनक ही अर्थ और परमार्थ समझता है । शेषको अनर्थ समझते है । देवादि मी समर्थ नही है कि निग्रन्थके वचनोंसे क्षोभ करा शके यावत श्रावक व्रत पालता हुआ अपनि आत्मरमनत में रमन करता हुआ विचरे है । इतना विशेष है कि इसके घर न होनासे अभंग द्वार नहीं तथा पर घर प्रवेशमे प्रतित और हृदय स्फटक था वास्ते पाठ नही है और श्रावक व्रतमें स्थुल प्रणातिपात विरमाण यावत् स्थल परिग्रह परिमाण कीये हुवे है किन्तु मैथुन सर्वता प्रकारे त्याग है शेषाचार परिवर्मिकोंके माफीक समझना । और भी अब कि कठिनता बतलाते है ।
अब श्रावक नही पते है जेसे आहार पाणी* आदा कर्मि उपदेशक मिश्राहार पुतीकर्म अज्जोयर क्रितगढ़ पांमिच अणि - शिट अभिठ रचित स्थापित कन्तार दुर्भिक्ष गल्याण बद्दल पाहुण | मूल कंद यावत् बीजादिका भोजन करना नहीं कल्पते हैं । और 1 पाणी कल्प पहेले कि माफिक समझना । तथा अनर्थदडक भी परित्याग किया था ।
आम्बड प०को नहीं कल्पते है अन्यतीर्थी और अन्यतीर्थीयोंका देव हरि हलधरादिकों तथा स्वतीर्थीयोंके चैत्य ( जिन प्रतिमा) अन्यतीर्थीयोंने अपनाकर अपने देवालय में अपने कबजे करा हो इन्हीं तीनोंकों वंदन नमस्कार सेवा भक्ति उपासना करना अम्बडको नहीं कल्पते है । अब जो वल्पे वह बतलाते है कि अरिहंत भगवान् और अरिहंतोंकि शान्त मुन्द्रा जिन प्रतिमा *यह जो आहार पाणीके दोष हैं वह विस्तार पूर्वक देखो शीघ्रबोध आग चतुर्थ ।