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श्री अन्तगडदशांगसूत्रका संक्षिप्त सार.
(१) पहेला वर्ग जिस्का दश अध्ययन है ।
प्रथम अध्ययन-चतुर्थ आरेके अन्तिम यादवकुलश्रृंगार बालब्रह्मचारी बावीसमा तीर्थकर श्री नेमिनाथ प्रभुके समयकी बात है कि इस जम्बूद्विपकी भारतभूमिके अलंकार सामान्य बा. रह योजन लम्बी नव योजन चोडी सुवर्णके कोट रत्नोंके कंगरे गढमढ मन्दिर तोरण दरवाजे पोल तथा उंचे उंचे प्रासाद मानी गगनसेही वातों न कर रहेहो और बडे बडे शीखरवाले देवालय. पर विजय विजयन्ति पताकावोंपर अवलोकन किये हुवे सिंहा. दिके चिन्ह जिन्होंके डरके मारे आकाश न जाने उर्ध्व दिशामें गमनकरतेके पीच्छ अति वेगसे जारही हो तथा दुपद चतुष्पद ओर धन धान्य मणि माणक मोती परवाल आदिसे समृद्ध ओर भी अनेक उपमा संयुक्त एसी द्वारामती (द्वारका ) नामकी नगरीथी । वह नगरी धनपति-कुबेर देवताकि कलाकौशल्यसे रची गइथी शास्त्रकार व्याख्यान करते है कि वह नगरी प्रत्यक्ष देवलोक सदृश मानों अलकापुरी ही निवास कीया हो जनसमु. हके मनकों प्रसन नेत्रोको तृप्त करनेवाली वडीही सुन्दराकार म्व. रूपसे अपनी कीर्ति सुरलोक तक पहुंचादीथी । नगरीके लोक व. डेही न्यायशील स्वसंपत्ती स्वदारासेही संतोष रखतेथे वहलोक परद्रव्य लेने में पंगु थे, परस्त्री देखने में अन्धे थे, परनिंदा सुनने को बेरे थे, परापवाद बोलमेको मुंगे थे, उन्ही नगरीके अन्दर दंडका नाम फक्त मन्दिरों के शिखर पर ही देखा जाते थे और