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________________ भूमिका - इसके पश्चात् हेत्वाभासोका वर्णन है। यह पीछे बतलाया जा चुका है कि बौद्ध हेतुमें पक्षधर्मत्व आदि तीन बातोंका होना आवश्यक मानते हैं । अतएव उन तीनों रूपों से एक भी रूपके न होने अथवा संदिग्ध होनेपर हेत्वाभास हो जोता है । अतएव त्रिरूपलिङ्ग माननेसे बौद्धोको तीन ही हेत्वाभास भी मानने पड़े हैं। जो कि यह हैं असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक । - पीछे दिखलाया जा चुका है कि मध्यकालीन नैयायिक हेतुमें पाँच बातोंका होना आवश्यक मानते थे। अतएव उनके मतके अनुसार इन्हीं तीनमें बाधितविषय, और सत्प्रतिपक्ष ये दो और जोड़ देनेसे पाँच हेत्वाभास होते हैं। ___ न्याय दर्शनमें सव्यभिचार, विरुद्ध, प्रकरणसम, साध्यसम और कालातीत ये पांच हेत्वाभास माने हैं, जो कि ऊपर वालोंसे अविरुद्धही हैं। ___ जैनियों ने असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिञ्चित्कर ये चार हेत्वाभास माने हैं। जिनमें अकिञ्चित्कर हेत्वाभास नया हेत्वाभास है। . न्यायबिन्दुमें इनके भेद प्रभेद भी बहुतसे दिखलाये हैं जो अन्य नैयायिकोसे विशेष भिन्न नहीं है। हेत्वाभासोंके पश्चात् दृष्टान्त और दृष्टान्ताभासोंका वर्णन है। हम पीछे बतला आये हैं कि आरंभिक बौद्धन्यायपर गौतमीय न्यायकी पूरी छाप लगी हुई है। न्यायबिन्दुको देखनेसे पता चलता है कि वह छाप इतनी पक्की हो गई थी कि धर्मकीर्तिभी उसकी उपेक्षा न करसके । और इसी कारणसे उन्होंने ग्रन्थ समाप्त करते २ विशेष आवश्यक न होने पर भी दूषणा, जाति और जात्युत्तरका थोड़ा सा वर्णन कर ही डाला । जिनमें से जाति न्यायदर्शनका एक मुख्य विषय है। न्यायबिन्दुकी समालोचनाको समाप्त करते हुए इतना लिख देना और आवश्यक प्रतीत होता है कि न्यायबिन्दु पद्य तो है ही नहीं, किन्तु यह सूत्र या वार्तिक भी नहीं है। सूत्र किसी अपेक्षासे इसको कह भी सकते हैं। किन्तु लेखके बीचमें नम्बर इत्यादिका बिलकुल अभाव होनेसे इसको सूत्र समझना भी कठिन है । हमारी सम्मतिमें यह बौद्ध न्यायके ऊपर एक स्वतन्त्र
SR No.034224
Book TitleNyayabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmottaracharya
PublisherChaukhambha Sanskrit Granthmala
Publication Year1924
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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