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________________ २२ भूमिका पाकशाला ने अधिक जोरदार बना दिया जो कि धूम वाली भी है और अग्नि वाली भी है। (७) न्यायबिन्दु तथा उसका न्याय । : इस बातको प्रमाणित करने की अब कोई अवश्यकता नहीं रह गई है कि प्राचीन कालमें सब दर्शनकारोंने अपनी २ प्रमाण व्यवस्था प्रथक् ही खड़ी की थी। यद्यपि यह आवश्यक नहीं था कि उन सबकी व्यवस्थाएं एक दूसरेसे भिन्न ही हो तथापि अपनी मानी हुई वस्तुके स्वरूपको बतलाने तथा अपनी युक्तियोंको सिद्ध करनेके लिये प्रथक् ही प्रमाणकी आवश्यकता थी। जहाँ दर्शन पदार्थों का वर्णन करता है वहाँ न्याय उन पदार्थोको सिद्ध करने वाली युक्तियोंका वर्णन करता है। इस प्रकार दर्शन और न्याय दोनों सापेक्ष हैं । प्रमाण सामान्यका लक्षण तो एक प्रकारसे विशुद्ध दार्शनिक विषय है अतएव इस पर हम प्रथक विचार करेंगे। यह पीछे प्रमाणित किया जा चुका है कि यद्यपि बौद्धन्याय गौतमके न्याय दर्शनके पीछे बना.है तथापि भारतके दार्शनिकोको विशुद्ध न्यायके ही ग्रन्थोंको लिखनेका मार्ग बौद्ध नैयायिकोंने ही दिखलाया है। गौतमीय न्याय अथवा प्राचीन न्याय, दर्शन और न्यायका मिला हुआ ग्रन्थ है। किन्तु बौद्धोंने अपने न्यायग्रन्थोकी स्वतन्त्र रचना करके उस समय भारतपर अपना सिक्का जमा लिया। ब्राह्मणोके पास तो पहिलेसे ही न्याय दर्शन था। अतएव उन्होंने उसकी ही टीका प्रटीकाओं तथा उसी ढंगके अन्य ग्रन्थोपरही भरोसा रखा किन्तु जैन नैयायिकों से यह सहन न हुआ । अस्तु उन्होंने भी बौद्धोंके समान न्यायके ऊपर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखने आरम्भ किये। भारतका मध्यकालीन दार्शनिक इतिहास जैन और बौद्ध धर्मों के ही शास्त्रार्थो से भरा पड़ा है । धीरे २ काल योगसे ब्राह्मणोंका फिर प्राबल्य हुआ। उससमय अपनी कुछ आन्तरिक निर्बलताओं तथा कुछ जैन और ब्राह्मणोंके धक्कसे बौद्ध धर्म पर तो ऐसा आघात पहुंचा कि वह भारतसे अदृश्य ही हो गया। किन्तु जैन धर्म किसी प्रकार सबकी चोटें सहता हुआ अभी तक भारतवर्षमें फेल ही रहा है। मिथला तथा नवदीपके नैयायिकोने अभी लगभग छह सौ वर्ष पूर्व प्राचीन न्यायका परिष्कार करके एक नव्य न्याय खड़ा किया है किन्तु यह प्राचीन न्यायका ही
SR No.034224
Book TitleNyayabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmottaracharya
PublisherChaukhambha Sanskrit Granthmala
Publication Year1924
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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