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________________ भूमिका "इन्द्रियज्ञानम्” पृष्ट १७ .. "स्वविषयानन्तरविषयसहकारिणेन्द्रियज्ञानेन समनन्तरप्रत्ययेन जनितं तन्मनोविज्ञानम्" पृष्ट १७ "सर्वचित्तवेतानामात्मसंवेदनम्" पृ० १९ "भूतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्तजं योगिज्ञानं चेति" पृ० २० इ. त्यादि । न्यायबिन्दुके इस प्रकारके वाक्यही इस प्रश्नको उपस्थित करते हैं कि वह वाह्याङस्तित्ववादी था. या विज्ञानाद्वैतवादी ? क्योंकि यद्यपि योगाचार बाह्य अर्थको नहीं मानता तथापि उपचारसे उसको वह भी मानता ही है । यदि हम धर्मकीर्तिको विज्ञानाद्वैतवादी मानले तो न्यायबिन्दुके बाह्यास्तित्ववाचक शब्दोंको औपचारिक मानना पड़ेगा। किन्तु उन वाक्योंके ढंगसे ऐसा प्रतीत नहीं होता। यदि उक्त वाक्य औपचारिक होते तो उनमेसे किसीमे तो उपचारवाचक शब्द अवश्यही होता किन्तु ऐसा कोई शब्द न्यायबिन्दुमें उपलब्ध नहीं है अतएव धर्मकीर्तिको विज्ञानाद्वैतवादी मानना युक्तिसंगत नहीं है। - इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि धर्मकीर्ति पहिले तीर्थमतका था उसके दिग्विजयसे प्रतीत होता है कि उसका मनन वैशेषिक आदि मतोंका विशेष था। वेदान्तियोंसे उसकी किसी भी भिड़न्तका पता नहीं चलता है । अतएव बौद्ध होनेसे पूर्व वह बाह्य और आन्तर दोनों प्रकारके पदार्थके अस्तित्वको माननेवाले किसी दर्शनका अनुगामी होगा । सो दोनोंके अस्तित्वको माननेवालेकी दूसरी सीढ़ी एककोही मानना या न मानना हो सकती है और वह सीढ़ी बाह्यार्थास्तित्ववाद है। अतएव धर्मकीर्ति बाह्यार्थास्तित्ववादी था । .. - तीसरी बात यह भी है कि नैयायिक प्रायः कमसे कम बाह्य अर्थ को माननेवाले होते हैं । जैन यद्यपि बाह्य और आन्तर दोनों अर्थ को मानते हैं तथापि शास्त्रार्थकी झंझटोंको दूर करने और विपक्षीको आक्षेपका मौका न देनेके लियेही उनको मतिज्ञान रूप परोक्षज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहना पड़ा है। अतएव ऐसी दशामें यह आशा नहीं की जा सकती कि बौद्ध न्यायका उद्धार कर्ता धर्मकीर्ति बाह्य अर्थ तकका स्पष्ट रूपसे अस्तित्व न मानता होगा। ..........
SR No.034224
Book TitleNyayabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmottaracharya
PublisherChaukhambha Sanskrit Granthmala
Publication Year1924
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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