SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषाटीका सहित अमदर्शितव्यतिरेको यथा-अनियः शब्दः . कृतकत्वदाकाशवदिति ।। अमदर्शितभ्यतिरेक जैसे-शब्द अनित्य है; क्योंकि वह आकाश के समान कृतक है। वैधयेणापि विपरीतव्यतिरेको यथा यदकृतकं तन्नित्यं भवतीति । वैधय॑से भी विपरीतव्यतिरेक जो कृतक नहीं होता वह नित्य होता है। न मिष्टान्ताभासहेतोः सामान्यलक्षणं सपक्ष एव सत्वं विपक्ष च सर्वत्रासत्त्वमेव निश्चयेन शक्यं दर्शयितुं विशेषलक्षणं वा । इन दृष्टान्ताभासों से हेतुका सामान्यलक्षण, सपक्षमें ही रहना और विपक्षमे सर्वत्र अभाव अथवा विशेषलक्षणको निश्चय रूपसे दिखला ही नहीं सकते। तदर्थापत्यैषां निरासो वेदितव्यः । अतएव उनका निरकरण अर्थापति ( सामर्थ्य ) से ही जान लेना चाहिये। दूषणा न्यूनतायुक्तिः। न्यूनता का कहना दूषणा है।। ये पूर्व न्यूनतादयः साधनदोषा उक्तास्तेषामुद्भावनं दूषणम् । जो पहिले न्यूनता आदि साधनदोष कहे हैं उनका कहना दूषण है। . तेन परेष्टार्थसिद्धिपतिबन्धात् । क्योंकि उससे दूसरेके इष्ट अर्थ की सिद्धि में रुकावट होती है। दूषणाभासास्तु जातयः । दूषणाभास जातियाँ हैं। अभूतदोषोद्भावनानि जात्युत्तराणीति । अभूत दोषका प्रकट करना जात्युत्तर है। इति तृतीयः परिच्छेदः समाप्तः । न्यायविन्दुः समाप्तः । इति तृतीय परिच्छेद समाप्त। न्यायविन्दु समाप्त । १. मुद्रित पुस्तक में 'अनुभूत०' पाठ है। किन्तु टीका से हमारे ही पाठ की पुष्टि होती है। इसके अतिरिक्त पहिले पाठ से अर्थ भी ठीक नहीं बैठता ।
SR No.034224
Book TitleNyayabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmottaracharya
PublisherChaukhambha Sanskrit Granthmala
Publication Year1924
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy