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न्यायविन्दु तत्संबन्धिस्वभावमात्रानुबन्धिनी तद्देशसंनिहितस्वभावता ।
तद्देशसंनिहितस्वभावता तत्सम्बन्धिस्वभावमात्रको कारण करने वाली है। · न हि यो यत्र नास्ति स तदेशमात्मना व्यामो
तीति स्वभावहतुप्रयोगः । 'जो जहाँ पर नहीं है वह उस प्रदेशको अपने द्वारा व्याप्त भी नहीं करता' यह स्वभावहेतु का प्रयोग है। • द्वितीयोऽपि प्रयोमो यदुपलब्धिलक्षणप्राप्तं सनोपलभ्यते न
तत्तत्रास्ति । तद्यथा-कचिद विद्यमानो घदः । • दूसरा प्रयोग-जो उपलब्धि लक्षण प्राप्त होता हुआं भी उपलब्ध नहीं होता वह वहाँ पर नहीं है । जैसे-कहीं अविद्यमान घट । नोपलभ्यते चोपलब्धिलक्षणपात सामान्य व्यक्त्यन्तरालेष्विति ।
न्यक्तियों के अन्तराल में उपलब्धिलक्षण प्राप्त सामान्य उपलब्ध नहीं होता। अयमनुपलम्भप्रयोगः स्वभावश्च परस्परविरुद्धार्थ
साधनादेकत्र संशयं जनयतः ।। यह अनुपलम्भप्रयोग और स्वभाव परस्पर विरुद्ध अर्थको साधन करने से एक स्थान में संशय को उत्पन्न करते हैं।
त्रिरूपो हेतुरुक्तः। इस प्रकार त्रिका हेतु कह दिया। तावतवार्थप्रतीति न पृथग्दृष्टान्तो नाम साधावयवः कश्चित् । .' तेन नास्य लक्षणं पृथगुच्यते,
गतार्थत्वात् । उतनेसे ही अर्थको प्रतीति हो जानेसे दृष्टान्त नामवाला कोई पृथक अवयव साधन में नहीं है। इस वासते उसका लक्षण प्रथक नहीं कहा [क्योंकि उतने से ही ] अर्थ विदित हो जाता है।
हेतोः सपक्ष एव सत्वमसपक्षाच सर्वतो व्यावृत्तो रूपमुक्त
१. पी० सं० में 'न' नहीं है । डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषण के लेखसे विदेत होता है कि ग्यावबिन्दु के तिब्बती भाषा के अनुवाद में 'न' है। हमारी सम्मति में भी यहाँ इसका होना था