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________________ न्यायबिन्दु जो स्वयं वादीसे माना गया हो [ पक्ष वही होगा ] । जो वादके समयमें साधनको कहे उसे वादी कहते हैं, इससे यद्यपि वादी किसी शास्त्रमें स्थिर रहकर साधनको कहता है [ तथापि ] उस शास्त्रकारके उसधर्मीमें माने हुए अनेक धर्मोमें से भी वादी जिस धर्मको साधना चाहे वही साध्य होता है, अन्य नहीं। 'इष्ट' पदकी सार्थकता इष्ट इति यत्रार्थे विवादेन साधनमुपन्यस्तं तस्य सिद्धिमि. च्छता सोऽनुक्तोऽपि वचनेन साध्यस्तदधिकरणत्वाविवादस्य । वादीने विवादके द्वारा सिद्ध करनेकी इच्छा रखते हुए जिस अर्थमें साधन दिया है वह अर्थ वचनसे न कहा जानेपर भी साध्य है, क्योंकि विवादका अधिकरण वही है। यथा पराश्चिक्षुरादयः संघातत्वाच्छयनासनाद्यनवदिति । अत्रात्मार्था इत्यनुक्तावप्यात्मार्थतानेनोक्तमात्रमेव साध्यमित्युक्तं भवति । जैसे-चक्षु आदि पदार्थ (दूसरेके वासते ) हैं। क्योंकि वह शयन, आसन आदि अङ्गोंके समान संघातरूप हैं। यहां पर 'आत्मार्थ ( आत्माके वासते) यह न कहे जानेपर भी तात्पर्यसे निकलने वाली आत्मार्थता ही साध्य है, ऐसा कहा जाता है। 'अनिराकृत' इस पदका समर्थन अनिराकृत इति । एतल्लक्षणयोगेऽपि यः साधयितुमिष्टो ऽप्यर्थः प्रयक्षानुमानप्रतीतिस्ववचनैनिराक्रियते न स पक्ष इति प्रदर्शनार्थम् । . जिस अर्थको सिद्ध करना चाहते हैं उसमें उपरोक्त सब लक्षणोंके होनेयर भी यदि वह प्रत्यक्ष, अनुमान, प्रतीति और स्ववचनसे निराकृत (निराकरणकिया हुआ) हो तो वह पक्ष नहीं हो सकता। [ अनिराकृत पद ] यह दिखलानेके लिये दिया गया है। . तत्र प्रत्यक्षनिराकृतो यथा-अश्रावणः शब्द इति । प्रत्यक्षनिराकृत (जिसका प्रत्यक्ष प्रमाणसे निराकरण किया जावे)जैसे-शब्द कर्ण इन्द्रियका विषय नहीं है। २. पीटर्सन संस्करण में यहाँ विराम चिन्ह नहीं है।
SR No.034224
Book TitleNyayabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmottaracharya
PublisherChaukhambha Sanskrit Granthmala
Publication Year1924
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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