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भाषाटीका सहित
नोपलभ्यते च कचित्पदेशविशेष उपलब्धिलक्षणप्राप्तो घट इति ।
[ दृश्यानुपलम्भके पक्षधर्मत्वको दिखलाते हुए कहते हैं- ] किसी प्रदेशविशेष में उपलब्धिलक्षणप्राप्त घट उपलब्ध नहीं होता। तथा स्वभावहेतोः प्रयोगः |
यत्तत्सर्वमनित्यं यथा घटादिरिति ।
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तथा स्वभावहेतुका प्रयोग
जो सत् होता है वह सब अनित्य होता है । जैसे-घट आदि । शुद्धस्य स्वभावहेतोः प्रयोगः । यदुत्पत्तिमतदनित्यमिति ।
शुद्ध स्वभावहेतु का प्रयोग
जो उत्पत्तिमान् होता है वह अनित्य होता है । ( यह अव्यतिरिक्तविशेषणाला प्रयोग है । )
स्वभावभूतधर्मभेदेन स्वभावस्य प्रयोगः | यत्कृतकं तदनित्यमित्युपाधिभेदेन ।
स्वभावभूतधर्मके भेद से स्वभाव का प्रयोगजो कृतक होता है वह अनित्य होता है ।
इस प्रकार उपाधिके भेदसे । स्त्रमावहेतु का प्रयोग कहा । ] अपेक्षित परव्यापारो हि भाव: स्वभावनिष्पत्तौ कृतक इति ।
जो वस्तु अपने स्वभावकी निष्पत्ति (उत्पत्ति ) में दूसरी वस्तु के व्यापारको आवश्यकता रखें उसे कृतक कहते हैं ।
एवं प्रत्यय भेद मेदित्वादयो द्रष्टव्याः ।
उसी प्रकार प्रत्यय भेदिभेदित्व प्रयत्नानान्तरीयकत्व आदि भी समझलेने चाहियें।
(जिसमें प्रत्यय अथवा कारजके भेदसे भेद निकाला जा सके उसे प्रत्यय भेदभेदी कहते हैं । नान्तरीयक व्याप्तको कहते हैं । अर्थात् जो जिसके रहनेपर रहे और न रहने पर न रहे उसे उससे व्याप्त या नान्तरीयक कहते हैं। जैसे सूर्य के होने पर मैदान में प्रकाश अवश्य होता है और उसके न होने पर नहीं होता । जो प्रय जसे व्याप्त होता है वह अनित्य होता है । जो प्रत्ययभेदभेदी होता है वह कृतक होता है ।