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________________ भाषाटीका सहित पर ही साधन अर्थ साध्य अर्थको बतलाता है। [इस कारणसे यह तीन ही साध्यको सिद्ध कर सकते हैं अन्य नहीं ] तदप्रतिबद्धस्य तदव्यभिचारनियमाभावात् । क्योंकि जो जहाँ पर स्वभावसे प्रतिबद्ध नहीं होता उसका अप्रतिबद्धविषयमें अव्यभिचारके नियमका अभाव होता है । [अतएव स्व. भावसे अप्रतिबद्धो अव्यभिचारनियम अथवा अविनाभावनियम नहीं बन सकता। गम्यगमकभाव अव्यभिचारनियम से ही होता है । लिङ्ग योग्यतासे दीपकके समान परोक्ष अर्थको प्रकाशित करनेका निमित्त भी नहीं माना जा सकता । बिरुद्ध इसके वह अव्यभिचारीपने से ही निश्चय किया जाता है । अतएव स्वभावप्रतिबन्ध होने पर ही अ. विनाभाव का निश्चय होता है। और गम्यगमकभाव अविनाभावसे ही होता है । अतएव स्वभावप्रतिबन्ध होने पर ही अर्थ अर्थको बत. लाता है अन्य प्रकार नहीं बतलाता।] स च प्रतिबन्धः साध्येऽर्थे लिङ्गस्य वस्तुतस्ता. दात्म्यात्साध्यार्थीदुत्पत्तेश्च । स्वभावप्रतिबन्ध साध्य अर्थ लिंगका होता है। ( पराधीन होने से लिङ्ग प्रतिबद्ध होता है । साध्य अर्थ पराधीन न होनेसे प्र. तिबन्धका विषय अथवा प्रतिबन्धविषय होता है किन्तु प्रतिबद्ध नहीं होता)। क्योंकि वास्तवमें साध्य और लिङ्गका तादात्म्य है और साध्य अर्थसे लिङ्गकी उत्पत्ति होती है। ( अर्थात् तादात्म्य और तदुत्पत्तिसे ही स्वभावप्रतिबन्ध होता है) ___ अतत्स्वभावस्यातदुत्पत्तेश्च तत्रापतिबद्धस्वभावत्वात् । क्योंकि जिसका वह स्वभाव न हो तथा जिसकी उससे उत्पत्ति न हो उसमें प्रतिबद्धस्वभावता नहीं होती है । ते च तादात्म्यतदुत्पत्ती स्वभावकार्ययोरेवेति' ताभ्यामेव वस्तुसिद्धिः । तादात्म्य और तदुत्पत्ति स्वभाव और कार्य में ही होती हैं । अ. तएव कार्य और स्वभावसे ही वस्तुकी ( अथवा विधिकी) सि. द्धि होती है। १. पू. पुस्तक में वस्तुतः' यह पाठ है। किन्तु हमारी सम्मति में यह प्रशुद्ध है। २ः पूर्वपुस्तक में 'इति' के पश्चात् विराम दे दिया है।
SR No.034224
Book TitleNyayabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmottaracharya
PublisherChaukhambha Sanskrit Granthmala
Publication Year1924
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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