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________________ भूमिका न्यायबिन्दुको पहिली पहल प्रो. पीटर्सन साहिवने १८८९ में निकाला था। यह संस्करण उन्होंने उक्त ग्रन्थकी दो हस्तलिखित प्रतियों ( Manuscripts ) की सहायतासे सम्पादन किया था, जिनमें से एक उनको काम्बे के शान्तिनाथके जैन मन्दिरमें ताड़ पत्र पर लिखी हुई मिली थी। ( पीटर्सन साहबने इस प्रतिका नाम (A) और हमसे (क) रखा है। ) और दूसरी रायल एशियाटिक सोसायटी की बम्बई शाखाके भाऊ दाजीके हस्तलिखित ग्रन्थोंके संग्रहमें भगवान दास केवलदास की सूचनाओं से मिली थी। ( पीटर्सन साहबने इसका नाम (B) और हमने (ख) रखा है। ) क. और ख. दोनों पुस्तकोमे धर्मोत्तराचार्य की न्यायबिन्दु टीका थी, किन्तु धर्मकीर्ति का मूल ग्रन्थ केवल ख. में ही था । 'हमने पाठोंके परिवर्तन क. और ख. से चिन्हित किये हैं । छपी पुस्तकको हमने अपनी टिप्पणीमें मुद्रित पुस्तक ही लिखा है और हमारी सम्मतिमें जहाँ मुद्रित पुस्तकका पाठ बदलने योग्य था उसको भी हमने टिप्पणीमें दिखला दिया है। यद्यपि हमने पोटर्सन साहिबकी सभी अशुद्धियोंको बतलाया है तथापि हमारे प्रथमें अफ सम्बन्धो बहुतसी अशुद्धियां अनुभव हीनताके कारण हो गई हैं, जिनका अधिकांश शुद्धिपत्रमें दे दिया गया है। आशा है कि विद्वज्जन मुझको इसके लिए क्षमा करते हुए उनको सुधार कर पढ़ेगे। (२) बौद्धन्यायके इतिहास पर एक दृष्टि । ___ यद्यपि दर्शनशास्त्रके आरंभिक कालमें भी बहुतसे शास्त्रार्थ हुमा करते थे सथापि उस समय न्यायकी ओर किसीका विशेष लक्ष्य न था। बुद्धके निर्वाणके समयकी पुस्तकोंमें भी इसका कुछ विवरण नहीं है । गौतमका न्यायसूत्र उस समय तक बन चुका था। किन्तु बौद्ध और जैन दार्शनिकोंका ध्यान अभी तक उधर आकर्षित नहीं हुआ था। यद्यपि सुत्तपिटकके दिघनिकायके भाग ब्रह्मजाल सुत्त, मज्झिमनिकायके भाग अनुमान सुत्त और खुद्दकनिकायके भाग उदान तथा पिनयपिटकके परिवार और पातिमोक्ख तथा अभिधम्मपिटकके कथावत्थुप्रकरण आदि ग्रन्थोंमें न्यायके कुछ शब्द तथा निर्णय करनेके कुछ नियम मिलते हैं किन्तु हमारी सम्मतिमें उनपर भी गौतमके न्यायसूत्रोंकी छाप पूर्ण रूपसे लगी हुई है।
SR No.034224
Book TitleNyayabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmottaracharya
PublisherChaukhambha Sanskrit Granthmala
Publication Year1924
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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