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( २७ ) अकेला जानकर मारने की चेष्टा कर सकता है, जिससे वेश उतरवाने वाले का अनर्थ भी हो जाता है । "अपि केवल गाहा"-यहां अपि शब्द सम्भावना अर्थ में है- जैसे वह सम्भावना करता है कि यदि यह थीणद्धिनिद्रा के उदयवाला जीव उसी भव में केवल ज्ञान उपार्जित करे, ऐसा हो तो भी उसको अथवा दूसरे को साधुवेश नहीं देना चाहिये । यह नियम अतिशयरहित साधुओं के लिये है। जो साधु अवधिज्ञान के अतिशयवाला हो तो वह उस ज्ञान से यह जानले कि इसको थीराद्धि निद्रा का उदय नहीं होता। इसके बाद उसको साधु वेश दे । इसके अतिरिक्त नहीं देना चाहिये । वेश उतारने से पूर्व थोद्धिनिद्रा वाले साधु को इस प्रकार उपदेश देना कि हे भद्र ! तुझे चारित्र की प्राप्ति नहीं हुई है इसलिये तू साधु वेश छोड़कर स्थूल प्राणातिपातादि का निवृत्ति रूप पांच अणुव्रतधारी श्रावक हो, अथवा पांच अणुव्रत धारण नहीं कर सकता है तो सम्यक्त्व ग्रहण कर और दर्शन श्रावक ही जा ! इस प्रकार समझाने पर भी जो वेश छोड़ने को तैयार नहीं होवे तो उसको सोया हुअा छोड़कर अन्य साधुओं को दूसरे प्रदेश ( स्थान ) में चले जाना चाहिये। __यही बात बृहत्कल्प में भी कही है। जीतकल्प की टीका में तो इस प्रकार लिखा है :--
"यदुदयेऽतिसंक्लिष्ट परिणामाद् दिनदृष्टमर्थमुत्थाय प्रसादयति केशवा बलश्च जायते तदनुदयेऽपि च स शेष पुरुषेभ्यस्त्रिचतुर्गुणबलो भवति इयं च प्रथम संहनिन एव भवति इत्युक्तमस्ति ।"
-थोणद्धि निद्रा के उदय में अत्यन्त संक्लिष्ट परिणाम से दिन में सोचे हुए कार्य यदि रात्रि में उठ कर करे तो उस समय
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