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(२) प्रीतिसागरजी
कहा जाता है कि आप संविग्न पक्षो (वैराग्यवान यति) थे। दीक्षानंदी सूची के अनुसार सं० १७८८ में आपकी दीक्षा हुई थो। आपका जन्म नाम प्रेमचन्द था। सं० १८०१ राधनपुर जिनभक्ति सूरि के साथ, श्री जिनलाभसूरि जो के सं० १८०४ में भुजनगर, सं० १८०५ में गूढा, सं० १८०६ में जैसलमेर में आप भी साथ थे। संवत् १८०८ कातो वदो १३ बीकानेर में आप स्वर्ग सिधारे। आपको पादुकाएं जैसलमेर की अमृत धर्म स्मृतिशाला में प्रतिष्ठित हैं (दे. हमारा बोका. ने जैन लेख संगह २ (४४) इसके अतिरिक्त आपके सम्बन्ध में ज्ञातव्य अन्य कोई प्रमाण नहीं मिला। सं० १७९५ मिगसर वदी १४ का आपको लिखित प्रति क्षमा कल्याण भंडार में है ।
(३) वाचक अमृतधर्म जी
कच्छ देश के प्रोशवंशीय वृद्ध शाखा में आपका जन्म हुआ था। आपका जन्म नाम अर्जुन था। दीक्षा सं० १८०४ फागण सुदी १ में जिनलाभ सूरिजी ने भुज में दी। शत्रुजयादि तोर्थो की आपने यात्रा की थी। सिद्धान्तों के योगोद्वहन किये थे। आपका चित्त संवेग रंग मे आपूरित था, फलतः आपने कुछ नियम ग्रहण किये थे जिसका विवरण नियम पत्र में मिलता है। उसके अन्त में लिखा है कि सम्वत् १८३८ माघ सुदि ५ को आपने सर्वथा परिग्रह का त्याग कर दिया था।
सम्वत् १८२६ में श्री जिनलाभसूरिजो ने अपने पास बुलाकर सं० १८२७ में आपको वाचनाचार्य पद से विभूषित किया था। इसके बाद यानि सं० १८२६ से १८४० तक आप गच्छनायक
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