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गुरु परम्परा
श्री जिनभक्ति सूरिजी के प्रोतिसागरजी नामक सुशिष्य थे, उनके विद्वान शिष्य अमृतधर्मजी थे जिनका उसमें वर्णन किया जा चुका है । क्षमाकल्याणजी उन्हीं के सुशिष्य थे । अब उपरोक्त तीनों का संक्षिप्त परिचय दिया जाता है ।
(१) जिन भक्ति सूरि
जिनसुखसूरि के पट्ट पर श्री जिनभक्ति सूरि आसीन हुये इनके पिता सेठ गोत्रीय साह हरिचन्द्र थे, जो इन्द्रपालसर नामक ग्राम के निवासी थे। इनकी माता थी हीरसुख - देवी । सम्बत् १७७० ज्येष्ट सुदो तृतीया को आपका जन्म हुआ था | जन्म नाम आपका भोमराज था और सम्बत् १७७६ माघ शुक्ला नवमी को दीक्षाग्रहण करने के बाद दीक्षा नाम भक्ति क्षेम डाला गया । सम्बत् १७८० ज्येष्ट वदी तृतीया के दिन रिणीपुर में श्रीसंघ कृत महोत्सव से गुरुदेव ने अपने हाथ से इन्हें पट्ट पर बैठाया था । तदनन्तर आपने अनेक देशों में विचरण किया। सादड़ी आदि नगरों में विरोधियों को ( हस्तिचालनादि प्रकार से [ ! ] ) परास्त करके विजय लक्ष्मी को प्राप्त करने वाले, सब शास्त्रों में पारंगत, श्री सिद्धाचल आदि सब महातोर्थों की यात्रा करने वाले और श्री गूढानगर में अजित -जिनचैत्य के प्रतिष्ठापक, महा तेजस्वी, सकल विद्वज्जन शिरोमणि आचार्य श्री जिन भक्ति सूरि के ( श्री राजसोमोपाध्याय श्री रामावजयोपाध्याय) श्रोर श्री प्रोतिसागरोपाध्याय आदि कई शिष्य हुये । आप कच्छ देश मंडन श्री मांडवीदिर में संवत् १८०४ में ज्येष्ठ सुदी चतुर्थी को दिवंगत हुये । उस रात्रि को आपके अग्निसंस्कार की भूमि ( श्मशान) में देवों ने दीपमाला की ।
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