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खण्डहरोंका वैभव
डालते हैं। महामेघवाहन महाराज खारवेलके 'हाथीगुफा' वाले लेखकी १४ वीं पंक्ति में "का य नि सी दो या य" शब्द व्यवहृत हुआ है। जो किसी अर्हत-समाधि या स्तूपका द्योतक है। कलिंग श्रमण-संस्कृतिका महान् केन्द्र रहा है। वहाँ इस प्रकारके स्मारक बहुतायतमें पाये जाते हैं । डा० बेनीमाधव बडुआने मुझे ऐसे कई स्मारकोंके चित्र भी (१६४७ ई०) में बताये थे।
उनमें कुछ तो ऐसे भी थे, जहाँ आज भी मेले व यात्राएँ भरती हैं। पर यह अन्वेषण प्रकाशित होने के पूर्व ही डा० बडुला संसारसे चल बसे । मुझे एक अंग्रेजी निबन्ध अापने प्रकाशनार्थ दिया था, पर कलकत्ता विश्वविद्यालयके एक प्रोफेसरने मुझसे, अवलोकन के बहाने हड़प ही लिया । ___अन्वेषकोंने, जैन-बौद्धका मौलिक भेद न समझ सकने के कारण बहुतसे जैन-स्तूपोंकी गणना बौद्ध स्तूपोंमें कर डाली। आज भी ऐसे प्रयास होते देखे जाते हैं।
पुरातन जैन-साहित्यमें उल्लेख आता है कि वहाँ पर धर्मचक्रभूमिके स्थानपर 'सम्प्रति'ने एक स्तूप बनवाया था। मथुराके कुषाण कालीन जैन-स्तूप अत्यन्त प्रसिद्ध रहे हैं। राजावलीकथासे प्रमाणित है कि कोटिकापुरमें अन्तिम केवली श्री जम्बूस्वामीका स्तूप था । इनके तीसरे पट्टपर आर्य स्थूलभद्र हुए, इनका स्तूप पाटलिपुत्र (पटना) में है । परन्तु आश्चर्य है कि जैन-पुरातत्त्वज्ञोंका ध्यान इस ओर क्यों नहीं गया, जब कि पुरातन यात्रियोंने इसका उल्लेख अपने यात्रा वर्णनमें किया है। श्रीस्थूलभद्रजीका स्मारक __ आचार्य श्री स्थूलभद्रजी गौतम गोत्रीय ब्राह्मण थे। आप आचार्य भद्रबाहु स्वामीके पास, नेपालमें 'वाचना' ग्रहणार्थ गये थे । वे पटनाके ही निवासी थे। इनका स्वर्गवास भी पटनामें ही वीर नि० संवत् २१६ और ईस्वी पूर्व ३११ में हुआ था।
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