________________
४८
खण्डहरोंका वैभव .यहाँपर प्रश्न यह उठेगा कि कुषाण और मोहन-जो-दड़ोकी कड़ियोंको ठीकसे सँजोनेवाली मध्यवर्ती सामग्री प्राप्त है या नहीं? इसके उत्तरमें यही कहा जा सकता है कि अभी पक्षपात रहित अन्वेषण ही कहाँ हुअा है ? बहुत-से प्राचीन खंडहर भी खुदाईकी राह देख रहे हैं । प्रत्यक्षतः इतना कहना उचित होगा कि कुषाणकालीन जो अवशेष मिले हैं, उनकी और मोहन-जो-दड़ोंसे प्राप्त सामग्रीमें, कलात्मक अंतर भले ही हो-स्वाभाविक भी है, परन्तु धर्मगत भिन्नता नहीं है। दोनोंकी भावनामें मतद्वैध नहीं है । आदर्शमें भी पर्याप्त साम्य है। क्योंकि भारतीय शिल्पमें कुछ मुद्राएँ ऐसी हैं, जो विशुद्ध जैन-संस्कृतिकी ही देन हैं--जैसे कि कायोत्सर्ग मुद्रा । प्राचीन जैन-मूर्तियाँ अधिकतर इसी मुद्रामें प्राप्त हैं ।
भारतीय-कला एक प्रकारसे प्रतीकात्मक है। प्रत्येक सम्प्रदायवाले अपने-अपने शिल्पमें स्वधर्म-मान्य प्रतीकोंका प्रयोग करते आये हैं। कुछ प्रतीकोंमें इतनी समानता है कि उन्हें पृथक् करना कठिन हो जाता है । उदाहरणार्थ त्रिशूलको ही लें। त्रिशूल तीनों गुणोंपर विजय पानेका सूचक मानकर वैदिक संस्कृतिने अपनाया है। जैनोंने भी रत्नत्रयका प्रतीक माना है। कलिंगकी जैन-गुफाओंमें भी त्रिशूलका चिह्न है। मोहनजो-दड़ोमें यही प्रतीक मिला है। धर्मचक्रका भी यही हाल है । जैन-बौद्ध कृतियोंमें अवश्य ही उत्कीर्णित रहता है ।
यों तो चैनाश्रित शिल्प-स्थापत्य कलाका इतिहास कुषाण कालसे माना जाता है, क्योंकि इस युगकी अनेक कला-कृतियाँ उपलब्ध हो चुकी हैं, परन्तु उपयुक्त अन्वेषणके बाद एक सूत्र नया मिला है, जो इसका इतिहास ३०० वर्ष और ऊपर ले जाता है।
जैन-साहित्यमें आर्द्रकुमारकी कथा बड़ी प्रसिद्ध है। वह अनार्य
__'विशेष ज्ञातव्यके लिए देखें "मोहन जोदड़ोकी कला और श्रमणसंस्कृति"
"अनेकान्त" वर्ष १० अंक, ११-१२ ।
Aho ! Shrutgyanam