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________________ श्रमण-संस्कृति और सौन्दर्य ४२६ न भूलना चाहिए कि कलाकारका आनन्द सामान्य आनन्दसे सर्वथा भिन्न होता है ? यद्यपि कलाकार प्रफुल्लित सौंदर्यकी अनुभूतिको व्यक्त करनेका प्रयास करता है, परन्तु कलामें पूर्णतया प्रकृतिका अनुकरण संभव नहीं, कारण कि दोनोंकी कायाओंके उपादानों में पर्याप्त भिन्नत्व है। कलाओंके रूप रसोद्दीपन कर सकते हैं, पर प्रकृतिको साकार नहीं । कलाकारकी प्रकृति व्याप्त-सौंदर्यकी रूपदानकी चेष्टा है। वह भाव-जगत्का प्राणी हैजिसका क्षेत्र असीम है । अतएव वह उसे ससीम कैसे कर सकता है ? उसके बूतेके बाहरकी बात है। फिर भी कलाका रूप रसोद्दीपन तो करता ही है। हमें यहाँ इतना भी अभीष्ट है। श्रमण-संस्कृतिने इसीलिए इस रूपदानको भी महत्त्वका स्थान दिया है। रसके द्वारा आत्मस्थ सौंदर्यको उद्बुद्ध करनेका इसमें स्पष्ट प्रयास है। पर वह रस आत्मपरक है । जैन शिल्पकलाका उद्देश्य यहाँ पर स्पष्ट हो जाता है। परम वीतराग परमात्माकी समुचित आकृतिको तो कलाकार खड़ी कर ही नहीं सकता पर फिर भी प्रतीकसे उसकी महानताका बोध तो हो ही जाता है। उनकी मुखमुद्रासे सौम्य भावोंकी कल्पना हो आती है। शरीर-विन्यास और भावभंगिमापर कौन मुग्ध न होगा । श्रमण-संस्कृत्याश्रित कलाके सभी विभागोंपर यह सिद्धान्त पूर्णतया चरितार्थ हो जाता है। श्रमणोंने इसी सिद्धांतके द्वारा सौंदर्य उपासना दिल खोलकर की, पर इस उपादानाश्रित सौंदर्यपरम्पराको उन्होंने साधन माना, न कि साध्य । पर समाज इस बातको भूल चुका, फलतः इतना संकीर्ण हो गया कि वह कला तककी उपेक्षा करने लगा। सौंदर्य पूर्व पंक्तियोंमें कहा गया है कि कला सौंदर्यकी अपेक्षा रखती है। कलाके सिद्धांतको आत्मसात् करनेके पूर्व सौंदर्यको समझना नितान्त आवश्यक है। कलाके समान इसे भी वर्णमालाके अक्षरों में सीमित रखना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है। फिर भी लोगोंने इसे बाँधनेकी जितनी Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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