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________________ ३७४ खण्डहरोंका वैभव वस्तुतः यह बमलाई, बिलाईका संस्कृत रूप जान पड़ता है । यह मैना जातिकी कुलदेवी है'। इस पर मैं अन्यत्र विस्तार से विचार कर चुका हूँ । अतः यहाँ पिष्टपेषण व्यर्थ है । · तपसीताल उपर्युक्त पहाड़ीके ठीक पीछे के भाग में तपसीताल नामक लघु, पर सुन्दर व स्वच्छ सरोवर है । इसीको लोग तपसीताल कहते हैं । इसीके तटपर एक पक्का वैष्णव मन्दिर बना हुआ है । इसे तपस्वी आश्रम कहते हैं। पुरातत्त्व से इस स्थानका सम्बन्ध न होते हुए भी सकारण ही, मैं इसका उल्लेख कर रहा हूँ, वैष्णव परम्पराका किसी समय यह केन्द्र था । छत्तीसगढ़ प्रान्तमें आजसे दो सौ वर्ष पूर्व सापेक्षतः शाक्त परम्परा पर्याप्त रूप में विकसित थी, उसे रोकने के लिए वैष्णव परम्पराने जो महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं, वे छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक इतिहास में उल्लेखनीय समझे जावेंगे । यहाँ किस व्यक्ति द्वारा उपर्युक्त परम्पराका सूत्रपात हुआ, यह तो कहना कठिन है, पर इतना निश्चित है कि धर्मदास के इस ओर आनेके पूर्व वैष्णवों की स्थिति पर्याप्त दृढ़ हो चुकी थी, बल्कि उनके स्वतन्त्र राज्य भी इस ओर क़ायम हो चुके थे । - 'तपसी आश्रम' की जो वंशावलि मुझे प्राप्त हुई है वह इस प्रकार हैबाबा हनुमानदासजी बाबा निर्मलदासजी I 'धमतरी (जि० रायपुर) में भी बिलाई माताका स्थान है । समय यहाँ नरबलि होती थी, बकरे तो अभी भी कटते हैं । माघमें मेला लगता है । छत्तीसगढ़ में बिलाईगढ़ नामक एक दुर्ग भी है । "मुनि कान्तिसागर --- "मेरी डोंगरगढ़ यात्रा” । Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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