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मध्यप्रदेशका बौद्ध-पुरातत्त्व है वह भी अस्पष्ट है । परिश्रमपूर्वक जो भाग पढ़ा जा सका है-वह इस प्रकार है- "देवधर्मोऽयं एसाथ पदक' या 'लेवाद, जयवादि. प्रभ.." पठित अंश किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँचाता। लिपिके आधारपर केवल मूर्तिका निर्माण काल ही स्थिर किया जा सकता है । प्रस्तुत लिपिके 'र' 'ल' 'य' 'ज' आदि कुल वर्ण अंतिम गुप्तोंके ताम्रपत्रोंमें व्यवहृत लिपिसे मिलते हैं, परन्तु धंगके लेखों में व्यवहार की गई लिपि इस लेखसे अधिक निकट है, भौगोलिक दृष्टि से विचार करनेसे भी यही बात फलित होती है। ___धंगके समयमें महाकोसल कलचुरियोंके अधिकारमें था। उन दिनों मूर्ति-कला उन्नतिके शिखरपर थी। निष्कर्ष यह कि प्रस्तुत मूर्ति, कला एवं लिपिकी दृष्टि से ११ वीं शतीके बादकी नहीं हो सकती। बुद्ध-देव-भूमि-स्पर्श मुद्रा-(२०" x १६") । __इस मुद्राकी स्वतन्त्र और विशाल अनेक प्रतिमाएँ इस भू-खंडमें उपलब्ध हो चुकी हैं, जैसा कि सिरपुरके अवशेषोंसे जाना जाता है; परन्तु इस प्रतिमाका विशेष महत्त्व होने के कारण ही इसका विस्तृत परिचय देना आवश्यक जान पड़ता है। भूमि-स्पर्श मुद्राके अतिरिक्त इसके परिकर में भगवान् बुद्धके जीवनकी विशिष्ट नौ घटनाओंका अंकन किया गया है । यह त्रिपुरीके एक लढ़ियाके अधिकारमें थी। मुझे उसीके द्वारा प्राप्त हुई है।
बुद्धदेवकी मुख्य प्रतिमाका विस्तार १३।४६" है। पाँव और हाथोंकी अंगुलियाँ सुघड़ स्वाभाविक हैं। दाहिने हाथकी अंगुलियोंकी दशा भूमिकी ओर है । इसका गांभीर्य उस कथाका पोषक है, जो भगवान् बुद्धके बुद्धत्व-प्राप्तिकी घटनासे संबंधित है । वक्षस्थल और अधोभागका गठन बड़ा कलात्मक एवं मानव सुलभ स्वास्थ्यका परिचायक है । सबसे आकर्षक वस्तु है वक्षस्थलपर पड़ा हुआ चीवर-जिसकी किनारका डिज़ाइन नैसर्गिक फूलपत्तियोंका बना है । पाषाणपर वस्त्रकी सुकुमारता एवं स्वाभाविक रेखाओं
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