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________________ ३२ खण्डहरोंका वैभव स्पष्ट है । अंगुष्ठ और कनिष्ठामें अँगूठी है । दक्षिण अंगुष्ठमें तो अँगूठी दिखलाई पड़ती है, पर कनिष्ठा फलसे दब-सी गई है। दोनों हाथों में दो-दो कंकण और बाजूबन्द हैं, गलेमें हँसुली और माला है, इनकी गाँठे इतनी स्पष्ट और स्वाभाविक हैं कि एक-एक तन्तु पृथक् गिने जा सकते हैं । कटिप्रदेशमें करधनी बहुत ही सुन्दर व बारीक है, इसकी रचना "हँसलीका प्रचार भारतवर्षके विभिन्न प्रान्तोंमे सामान्य हेरफेरके साथ दृष्टिगोचर होता है । गुप्तकालीन प्रस्तर एवं धातु-मूर्तियोंमें एवं पहाड़पुर (बंगालके बारहवीं शतीके) अवशेषोंमें इसका प्रत्यक्षीकरण होता है, एवं हर्षचरित, कादम्बरी आदि तत्कालीन साहित्यसे फलित होता है कि उस समय रत्नजटित हंसलियोंका प्राचुर्य था। उसकी पुष्टि के लिए पुरातात्विक प्रमाण भी विद्यमान हैं। छत्तीसगढ़ प्रान्तमें तो हसुली ही आभूषणोंमें शिरोमणि है । यहाँ के प्राचीन लोक-गीतों में हँसुलीका उल्लेख बड़े गौरवके साथ किया गया है। कटिमेखला भी स्त्रियोंका खास करके प्राचीन समयका प्रधान आभरण था । यदि भिन्न-भिन्न प्रकारसे निर्मित कटिमेखलाओंपर प्रकाश डाला जाय तो निस्सन्देह एक ग्रन्थ सरलतासे तैयार हो सकता है। भारतीय इतिवृत्त और पुरातत्वके अनुसन्धानकी उपेक्षित दिशाओं में आभूषणोंका अन्वेषण भी एक महत्त्वपूर्ण कार्य है । भारतके विभिन्न प्रान्तोंसे उपलब्ध होनेवाले आभूषण, उनमें कलात्मक दृष्टि से क्रमिक विकास कैसे-कैसे कौन-कौनसी शीमें होता गया, तात्कालिक साहित्यमें जिन आभूषणोंके उल्लेख मिलते हैं उनका व्यवहार चित्रों और स्थापत्य कलामें कबसे कबतक बना रहा ? और वे आभूषण प्रान्तीय कलाभेदसे किन-किन प्रकारसे कलाविदों द्वारा अपनाये गये, आदि विषयोंके अन्वेषणपर भारतीय विद्वानोंका ध्यान बहुत ही कम आकृष्ट हुआ है । ये आभूषण यों तो भारतीय आर्थिक विकास एवं सामाजिक प्रथा व लोक-सुरुचिके Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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