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संस्कृतिके महान साधकों का चिन्तन परिलक्षित होता है । सर्वांगीण विकसित जीवन तत्त्व और साधनाका सत्य, अपेक्षाकृत पुरातन होते हुए भी चिरनवीन तत्त्वोंका उत्तम संस्करण ज्ञात होता है । उनके निरपेक्ष सौन्दर्य व शैल्पिक जसे मैं नुप्राणित होता हूँ ।
धर्म और कला
भारतीय कलाके उज्ज्वल तीतसे अवगत होता है कि उसने धर्मके विकास में महान् योग दिया है या यों कहना चाहिए कि सापेक्षत: धर्माश्रित कलाका विकास अधिक हुआ है । पुरातन मन्दिर, प्रतिमा आदि उपर्युक्त पंक्तियों के समर्थन के लिए पर्याप्त है । कलाने प्राध्यात्मिक वृत्ति जागरणमें मानवताकी जो सहायता की है, वह अनुकरणीय है । भाव जागरणके लिए रूप शिल्पकी मानव जीवनमें तब तक श्रावश्यकता है, जब तक वह श्रप्रमत्त दशाको प्राप्त नहीं हो जाता । वह रूप शिल्प श्रात्मोत्थान में सहायक भावका प्रतिबिम्ब होना चाहिए, जिससे अन्तः वाणीके उन्नत श्रादर्शकी पूर्ति हो सके | इसलिए कहा गया है
दि स्टुडियो भवदि भर्टिस्ट आव टुडे । उडवी टेम्पल व ह्यूमैनिटी टुमारो ॥
उपर्युक्त पंक्तियोंसे कलाकी सोद्देश्यता स्पष्ट है । उद्देश्य है मानव को सच्चे अर्थों में मानव बनाना । धर्मका भी कर्तव्य यही है कि मानवीय गुणके विकास द्वारा श्रात्माको निरावृत बनाना । गुण विकास और साधनामें साधक तत्त्वोंका पुष्टीकरण कलाके द्वारा होता है । सम्पूर्ण भारतमें धर्ममूलक जितनी भी उत्कृष्ट कलाकृतियाँ खण्डहरोंसे उपलब्ध की जा सकती हैं और कितनी ही आज भी उपेक्षा के कारण दैनन्दिन नष्ट हो रही हैं । उन सबका सीधा सम्बन्ध धर्म या लोकोत्तर जगत् से होते हुए भी, उनका लौकिक महत्त्व किसी भी दृष्टिसे अल्प नहीं । श्रात्मस्थ सौन्दर्यको उद्बुद्ध करनेमें निमित्त होनेके कारण तथाकथित कृतियाँ या पार्थिव श्रावश्यकताओं में
Aho ! Shrutgyanam