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________________ २६८ खण्डहरोंका वैभव पैदल चलनेवाला आखिर में इतने विस्तृत भूभागपर कहाँतक चक्कर काट सकता है, वह भी सीमित समय में । मैंने तो केवल सतना और रीवां जिलेके स्थान ही देखे हैं, जो मेरे मार्ग में थे । देवतलाब, मऊ, प्योहारी, गुर्गी, नागौद, जसो, लखुरबाग, नचना, उचहरा, मैहर आदि प्रधान स्थान एवं तत्सन्निकटवर्ती स्थानोंके अवशेष इस बातकी साक्षी दे रहे हैं, कि एक समय उपर्युक्त भूभाग जैनोंके बड़े केन्द्र रहे होंगे । १२-१२ हाथकी दर्जनों बड़ी मूर्तियोंका मिलना, सैकड़ों जैन मन्दिरोंके तोरणद्वार एवं मूर्तियों की प्राप्ति, उपर्युक्त बातकी ओर गम्भीर संकेत करती हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि मध्यकालीन जैनसंस्कृति और कलाके केन्द्रकी घोर उपेक्षा हो रही है । आश्चर्य तो इस बातका है कि इस ओर जैनोंकी संख्या भी सापेक्षतः कम नहीं है। सच बात तो यह है कि उनकी इस ओर रुचि नहीं है । दुर्भाग्य से भावुक मानसमें एक बात घर कर गई है कि टूटी मूर्ति देखना अपशकुन है । - मेरा विषय यहाँ पर अत्यन्त सीमित है, यानी रीवाँ, रामवन, जसो, उचहरा, मैहर आदि स्थानोंके जैन अवशेषोंका परिचय कराना । परन्तु इतः पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि विन्ध्यप्रान्तीय जैन पुरातत्त्वकी अपनी मौलिक विशेषताएँ क्या-क्या हैं? किस कलासे कितना जैन कलाकारों ने लिया ? एवं चलती आई परम्पराको निर्वाह करते हु सामयिक परिवर्तन कौन-कौनसे और कैसे किये ? मैं मानता हूँ कि जैन मूर्तियोंकी मुद्रा निर्धारित है, उसमें सामयिक परिवर्तन कैसा ? परन्तु यह देखा गया है कि कलाकार हमेशा प्रगतिका साथी होता है, युगकी शक्तिको देखकर उसे मोड़ता है, तभी उसकी कृतियाँ प्राचीन होते हुए, आज भी हमें नूतन लगती हैं । सामयिक उचित परिवर्तन सर्वत्र अपेक्षित है । कुछ विशेषताएँ ऊपर सूचित भूभागकी जितनी भी जैन मूर्तियाँ स्वतन्त्र या तोरणद्वार में पाई जाती हैं, प्रायः सभी अष्टप्रातिहार्य युक्त ही होती हैं, भले ही Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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