SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४६ खण्डहरोंका वैभव ६८७४३५ किसी जैन-मन्दिरका स्तंभ है। दो मूर्तियाँ हैं । ६८८४३४ स्तंभांशपर पार्श्व-प्रतिमा हैं । २२४११॥ इंच । ६१०-यह एक खड्गासनस्थ प्रतिमा है । ३८४२१ इंच । मस्तकपर सप्तफण स्पष्ट है । उभय ओर पार्श्वद हैं । बायाँ भाग खंडित है । लांछनके स्थानपर बहुत ही स्पष्ट रूपसे शंख दृष्टिगोचर होता है। मूर्ति विलक्षण-सी जान पड़ती है और देखकर एकाएक भ्रम भी उत्पन्न हो जाता है, कारण कि मस्तकपर नागफन और शंख लांछन, ये दो परस्पर विरोधी तत्व हैं । फन स्पष्ट होने के कारण इसे पार्श्वनाथकी मूर्ति मानना चाहिए, शंखका चिह्न भगवान् नेमिनाथका है । अतः मूर्ति नेमि जिनकी भी मानी जा सकती है। ऐसी मान्यताके दो कारण हैं, एक तो शंख लांछन और दूसरा सबल प्रमाण है आम्न वृक्षकी लताएँ, जो भगवान्के मस्तकके ऊपरी भागके समस्त प्रदेश में झूम रही हैं। सम्भव है आम्रलताएँ अंबिकाका प्रतीक हो, ऊपर पंक्तियोंमें प्रसंगतः उल्लेख हो चुका है कि अम्बिकाके हाथमें आम्रखंच रहती है । मूल प्रतिमाके मस्तकके बायें भागमें एक ऐसी देवीका शिल्प अंकित है, जिसके बायें घुटनेपर बालक बैठा है । मन तो करता है कि इसे हो क्यों न अम्बिका मान लें। ऐसा प्रतीत होता है, मानो आम्रवृक्षकी सुकुमार डालियोंपर वह झूल रही हों, परन्तु पुष्ट प्रमाणके अभावमें इसे अंबिका कैसे मान लें ? मैंने अपने जीवन में ऐसी एक भी जैन तीर्थकरकी प्रतिमा नहीं देखी, जिसके मस्तकके ऊपरके भागमें अधिष्ठाता या अधिष्ठातृ देवीके स्वरूप अंकित किये गये हों। हाँ, उभयके मस्तकपर जिन-मूर्ति तो शताधिक अवलोकनमें आई है । मेरे लिए तो यह बड़े ही आश्चर्यका विषय था । कोई मार्ग नहीं सूझ पड़ता था कि इसका निर्णय कैसे किया जाय । मेरे परममित्र मुनि श्री कनकविजयजीने मेरा ध्यान पार्श्वनाथ भगवान्के जलवृष्टिवाले उपसर्गकी ओर आकृष्ट करते हुए कहा कि यह संभवतः उसीका प्रतीक हो, परन्तु वह भी मुझे नहीं जंचा । कारण कि यदि उपसर्गका प्रतीक होता तो धरणेन्द्र और पद्मावती भी अवश्य ही उपस्थित रहते । एक कल्पना और जोर Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy