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खण्डहरोंका वैभव
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धर्मावलंबियोंकी प्रतिमाओं में हुआ था विशेषतः अन्तर्गत मूर्तियोंका उपरि भाग — जो मगधकी स्मृति दिला रहा है- बुन्देलखण्ड के विष्णु और शाक्त प्रतिमाओं में पाया जाता है । ५ संख्यावाली उपर्युक्त प्रतिमा जहाँपर सुरक्षित है, ठीक उसके पश्चात् भागमें ही एक और जैनमूर्ति है, जो मटमैले पाषाणपर खुदी हुई है । निःसंदेह मूर्तिका सौंदर्य और शारीरिक विकास स्पर्धाकी वस्तु है, परन्तु प्रश्न होता है कि क्या मूर्तिका स्वाभाविक ग इतना ही था जितना आप चित्रमें देख रहे हैं ? मुझे तो संदेह ही है, कि दक्षिण भाग जितना स्पष्ट है, उतना ही वाम भाग स्पष्ट । मेरा तो ध्यान है कि यह विशालकाय प्रतिमा के परिकरका एक अंगमात्र है । ऊपर जिस मूर्तिका चित्र आप देख रहे हैं, उसके दक्षिण भागकी ही आप कल्पना करें तो इन पंक्तियों का रहस्य स्वतः समझ में आ जायगा । यह त्रुटितांश एक बातकी ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है कि पूर्व प्रतिमा कितनी मनोहर रही होगी ।
कारण
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इस छप्परवाले संग्रहमें उत्थितासन कुछ जैन-मूर्तियाँ हैं, पर कलाकी दृष्टि से उनका विशेष मूल्य न होनेसे उल्लेख ही पर्याप्त है ।
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नगरसभा - संग्रहालयके मुख्य गृहके पश्चात् भागमें एक और टीनकी मज़बूत चादरोंसे ढका एक छप्पर है, जो जालियोंसे घिरा हुआ है । इसमें उन्मुक्त भावनाओं के पोषक कलावशेष क़ैद हैं । परन्तु बन्दी जीवन-यापन करनेवालों में जो रसवृत्तिका स्थायी भाव देखा जाता है वह सात्त्विक मनोभावनाका अद्भुत प्रतीक है । इस गृहको मैंने बन्दीखाना सकारण ही कहा है । जब हम लोगोंने इसमें प्रवेश किया तब इतना कूड़ा-कचरा भरा हुआ था मानो महीनोंसे सफाई ही न हुई हो, जहाँ सर ऊँचा किया कि जाले लगे । मूर्तियोंपर तो इतनी धूल जम गई थी कि मुझे साफ करने में पूरा १ ॥ घंटा लगा । कला तीर्थ में भी इस प्रकारकी घोर अव्यवस्था, किसी भी दृष्टिसे क्षम्य नहीं । हमारे देशकी संस्कृतिके प्रतीकसम इन अवशेषोंका संग्रह
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