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खण्डहरोंका वैभव
मिलता है, जब कि गुप्त कालमें वह स्थान कमलासन में परिवर्तित हो गया । प्राचीन मूर्तियों में छत्र मस्तक के ऊपर बिना किसी आधार के लटके हुए बनाये गये हैं, किन्तु उपर्युक्त कालमें बहुत ही सुन्दर दण्डयुक्त कलापूर्ण छत्र हो गये । मुख्य जैन-मूर्ति के पार्श्वद एवं उसके हस्त, मुख आदिकी भावभंगिमापर अजंता की चित्रकलाको स्पष्ट छाया है। परिकरके पृष्ठभाग में प्राचीन मूर्तियों में केवल साधारण प्रभामंडल ही दृष्टिगोचर होता है, जब गुप्तकालीन मूर्तियों में उसके अर्थात् मस्तक और दोनों स्कन्ध प्रदेशके पृष्ठ भागमें एक तोरण दिखलाई पड़ता है, कहीं सादा और कहीं कलापूर्ण । यह तोरण एक प्रकार से साँचीका सुस्मरण कराता है । परिकरके निम्न भागमें भी कहीं-कहीं ऐसा देखा जाता है, मानो कमलके वृक्षपर ही सारी मूर्ति श्रावृत हो । कुछ मूर्तियोंमें कलश, शंख, धूपदान, दीपक और नैवेद्य सहित भक्त खड़ा बतलाया गया है । उपर्युक्त सम्पूर्ण प्रभाव बुद्ध-कलाकी देन है । जैन-मुद्रा तप प्रधान होनेके कारण मूलतः बौद्ध प्रभावसे वंचित रही । बाह्य अलंकरणों में क्रान्ति अवश्य हुई, परन्तु वह भी 'पाल' कालमें तथा उत्तर गुप्तकाल में सुप्त हो गई। गुप्तोत्तरकालीन जैन-मूर्तियाँ मन्दिरोंकी अपेक्षा गुफाओं में ही भित्तिपर उत्कीर्णित मिलती हैं ।
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उपर्युक्त काल में पश्चिमभारतकी अपेक्षा उत्तरभारत में मूर्तिकलाका पर्यात विकास हुआ । यद्यपि कलात्मक दृष्टि से इनपर बहुत ही कम अध्ययन हुआ है, तथापि अंग्रेजी जरनलों और भारतीय पुरातत्त्व विषयक कुछ प्रान्तीय भाषाओं के शोधपत्रोंमें कुछ मूर्तियाँ सविवरण प्रकाशित हुई हैं। विदेशी संग्रहालयोंके इतिवृत्तों में भी इनका समावेश किया गया है ।
उत्तर गुप्तकालीन अधिकतर मूर्तियाँ सपरिकर ही मिलती हैं। इसे हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं। प्रथम परिकर में जैनमूर्ति एवं उसके चारों ओर अवांतर बैठी या खड़ी मूर्तियाँ ही अंकित रहती हैं । एवं निम्न
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