SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्डहरोंका वैभव यह बात निर्विवाद है कि कलाकी दृष्टिसे जैनोंकी अपेक्षा बौद्ध मूर्ति - निर्माण - कला में शीघ्र ही बाजी मार ले गये । जिसप्रकार बौद्धोंने धार्मिक क्रान्ति की, उसीप्रकार अत्यन्त ही अल्प समय में मूर्तिकला में भी क्रान्तिकारी तत्त्वोंको प्रविष्ट कराकर, मूर्तियों में वैविध्य ला दिया । अर्थात् उसी समयकी भगवान् बुद्धकी तथा बौद्ध धर्माश्रित विभिन्न भावोंको प्रकाशित करनेवाली गान्धार और कुषाण कालकी अनेक मूर्तियाँ मिलती हैं, परन्तु क्रान्ति के मामले में जैनी प्रायः पश्चात्पाद रहे हैं फिर शिल्पकला में - और वह भी धर्माश्रित- परिवर्तन कर ही कैसे सकते थे । इतना अवश्य है कि जैनोंने जिन-मूर्तियों की मुद्रा में परिवर्तन न कर जैन-धर्ममान्य प्रसंगों के शिल्पमें समय-समयपर अवश्य ही परिवर्तन किये एवं मूर्तिके एक अंग परिकर निर्माण में तथा तदंगीभूत अन्य उपकरणों में भी आवश्यक परिवर्तन किया, परन्तु वह परिवर्तन एक प्रकारसे कलाकार और युगके प्रभाव के कारण ही हुआ होगा । मजबूरी थी । २२४ श्रमण-संस्कृति अति प्रारम्भिक काल से ही निवृत्ति प्रधान संस्कृति के रूप में, भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध रही है । उसके बाह्यांग भी इस तत्त्व के प्रभावसे बच नहीं पाये । मूर्ति में तो जैन-संस्कृतिकी समत्वमूलक भावना और आध्यात्मिक शांतिका स्थायी स्रोत उमड़ पड़ा है । कुशल शिल्पियोंने संस्कृतिकी आत्माको अपने औजारों द्वारा कठोर पत्थरोंपर उतारकर वह सुकुमारता ला दी है, जिसका सौन्दर्य आज भी हर एकको अपनी ओर खींच लेता है। मैं तो स्पष्ट कहूँगा कि भारतवर्ष में जितने भी सांस्कृतिक प्रतीक समझे जाते हैं या किसी-न-किसी अवशेष में किंचिन्मात्र भी भारतीय संस्कृतिका प्रतिबिंब पड़ा है, उनमें जैन - प्रतिमाओंका स्थान त्यागप्रधान भावके कारण सर्वोत्कृष्ट है । इसीमें भारतीय संस्कृतिकी आत्मा और धर्मकी व्यापक भावनाओंका विकसित रूप दृष्टिगोचर होता है । वहाँपर जाते ही मानव अंतर्द्वद भूल जाता है । शान्तिके अनिर्वचनीय आनन्दका अनुभव करने लग जाता है । जब कि अन्य धर्मावलम्बी मूर्तियों में इस प्रकारकी अनुभूति कम Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy