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________________ २२२ खण्डहरोंका वैभव कविवर समयसुन्दरजीने अपनी तीर्थ मास छत्तीसीमें पुरिमतालपर भी एक पद्य रचकर, जैनतीर्थ होनेका प्रमाण उपस्थित किया है। ___ मुझे दो बार प्रयाग जानेका अवसर मिला है, मैंने अक्षयवट और अकबर निर्मित निलेका (मिलिटरी अधिकारियोंकी सहायतासे) इस दृष्टि से निरीक्षण किया है, पर मुझे जैनधर्मके चरण या ऐसी हो कोई सामग्री दिखी नहीं। हाँ, प्रयाग नगरपालिकाके संग्रहने मुझे बहुत प्रभावित किया । वहाँ जैनमूर्तियोंका अच्छा संग्रह किया गया है, परन्तु उन्हें समुचित रूपसे रखनेकी व्यवस्था नहीं है। जैन-मूर्तिकलाका क्रमिक-विकास प्रयाग नगर-सभा संग्रहालय स्थित जैनमूर्तियोंका परिचय प्राप्त करने के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि जैन-मूर्ति-निर्माणकला क्या है ? इसका क्रमिक विकास कलात्मक और धार्मिक दृष्टि से कैसा हुआ ? यों तो उपर्युक्त प्रश्न इतने व्यापक और भारतीय मूर्ति-विधानकी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं कि उनपर जितना प्रकाश डाला जाय कम है, कारण कि मूर्तिविधान और विधाताका क्षेत्र अति व्यापक है। आश्रित और आश्रयदाताओंमें भिन्नता हो सकती है, परन्तु कलोपजीवी व्यक्तियोंमें नहीं। विकास संघर्षात्मक परिस्थितिपर निर्भर है। ज्यों-ज्यों युगकी परिस्थितियाँ बदलती हैं, त्यों-त्यों सभी चल-अचल तत्त्वोंमें स्वाभाविक परिवर्तनकी लहर आ जाती है। ये पंक्तियाँ मूर्तिकलापर सोलहों आने चरितार्थ होती हैं। इस कलामें युगानुसार परिवर्तनका अर्थ यह है कि कलाकार अपने सुचिन्तित मानसिक भावोंको प्राप्त साधनोंके द्वारा युगकी अभिरुचिके अनुसार व्यक्त करता है। प्रकटीकरणमें माध्यम एवं अन्य सांस्कृतिक विचारों में मौलिक ऐक्य रहते इसकी मूल प्रति कविने स्वयं अपने हाथसे सं० १७०० आषाढ़वदि १ को अहमदाबादमें लिखी है। रॉयल एशियाटिक सोसायटी बम्बईमें सुरक्षित है। Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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