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महाकोसलका जैन - पुरातत्त्व
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के लिए विभक्त किया जा सकता है - स्थापत्य और मूर्तिकला । स्थापत्य अवशेषों में आरंग मंदिरको छोड़कर और कृति मेरी स्मृतिमें नहीं है । हाँ, त्रिपुरी, बिलहरी और बड़गाँव आदि स्थानोंमें कुछ स्तम्भ ऐसे पाये गये हैं, जिनपर स्वस्तिक, नन्द्यावर्त, मीन-युगल और कुंभ कलश आदि चिह्न अवश्य ही पाये जाते हैं । निस्संदेह इनका सम्बन्ध जैनधर्मसे है । ये स्तम्भ जैनप्रासादके ही रहे होंगे। गवेषणा करनेपर इसप्रकारके अन्य प्रतीक भी मिल सकते हैं । विशाल जैनप्रासादों के कुछ कलापूर्ण तोरण भी उपलब्ध हुए हैं | उदाहरण-स्वरूप दोके चित्र भी दिये जा रहे हैं । कुछ अवशेष मान' स्तम्भके भी प्राप्त हुए हैं । इन अवशेषोंसे फलित होता है कि महाकोसल में जैनमन्दिर अवश्य ही रहे थे, पर विन्ध्यप्रान्त के समान यहाँ भी अजैनों द्वारा अधिकृत कर लिये गये या विनष्ट कर दिये गये । उपर्युक्त समस्त प्रतीक स्थापत्य कलासे ही सम्बद्ध हैं । जैन स्थापत्यपर विपुल सामग्री के अभाव में अधिक क्या लिखा जा सकता है ।
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मूर्तिकला
महाकोसल में जितनी भी प्राचीन जैन प्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं, वे सभी प्रस्तत्कीर्णित हैं । कलाकारको अपने भावोंको मूर्तरूप देने के लिए पत्थर में काफ़ी गुञ्जाइश रहती है । धातु मूर्ति, आजतक केवल एक ही ऐसी उपलब्ध हुई है, जो कलचुरी पूर्व विकसित मूर्तिकलाकी देन है । १६४५ पन्द्रह दिसम्बरको मुझे श्रीपुरके एक महन्तने भेंट स्वरूप दी थी। इसमें ग्रहों का अंकन स्पष्ट था । पाषाणपर खुदी हुई जिनप्रतिमाएँ दो प्रकारकी मिली हैं—एक सपरिकर पद्मासन एवं अपरिकर या सपरिकर खड्गासन | सपरिकर पद्मासनस्थ जिनप्रतिमाओं में सर्वश्रेष्ठ मूर्ति भगवान् ऋषभदेवकी
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'दिगम्बर जैनमन्दिरोंके सम्मुख मानस्तम्भ स्थापित करनेकी प्रथा
मध्यकाल कुछ पूर्वी प्रतीत होती है ।
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'चित्र देखिए विशाल भारत १६४६ सितम्बर, पृ० १४६ ।
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