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________________ १६४ खण्डहरोंका वैभव जैन कलाकृतियोंका प्रकाशमें न आना सर्वथा स्वाभाविक है। जहाँ बिखरे हुए जैन-अवशेषोंको देखकर तो ऐसा ही लगता है कि किसी समय महाकोसल जैन-संस्कृतिका प्रधान केन्द्र रहा होगा। जैन-पुरातत्त्वके अवशेषोंको समझने में शुरूसे विद्वानोंने बड़ी भूल की है। जैन-बौद्ध-मूर्तिकलामें जो अंतर है, वे समझ नहीं पाते, इसी कारण महाकोसलकी अधिकतर जैन-कलाकृतियाँ बौद्धसे पहचानी जाती हैं । सरगुजा राज्यमें लक्ष्मणपुरसे १२ वें मोलपर रामगिरि पर्वतपर जो गुफाएँ उत्कीर्णित हैं, उनमें कुछ भित्तिचित्र भी पाये गये हैं। रायकृष्णदासजीका मत है, इनमेंसे "कुछ चित्रोंका विषय जैन था।"' कारण कि पद्मासन लगाये एक व्यक्तिका चित्र पाया जाता है । इस गुफामें एक लेख भी उपलब्ध हुंआ है । भाषा प्राकृत है । डा० ब्लाखके मतसे इसका काल ईसवी पूर्व ३ शती जान पड़ता है । इस प्रमाणसे तो यही प्रमाणित होता है कि उन दिनों श्रमणसंस्कृतिका प्रभाव इस भूभागपर अवश्य ही रहा होगा। पद्मासन जैनतीर्थकरकी ही विशेष मुद्रा है । बौद्धोंमें इस मुद्राका विकास बहुत काल बादमें हुआ है । यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि अशोकका एक स्तम्भ भी रूपनाथमें मिला है, जिसपर उनकी आज्ञाएँ खोदी गई हैं। तो बौद्ध संस्कृतिका प्रतीक रूपनाथ और जैन-संस्कृतिका रामगिरि ( रामटेक नहीं जैसा कि भारतकी चित्रकला, पृ० २ । चित्रके लिए देखें आ० स० इं. १९०३-४, पृ० १२३ । केटलाग आफ दि आर्कियोलॉजिकल म्यूज़ियम at Mathura by J. वोगल Ph. D., Allahabad. 3श्री उग्रादित्याचार्यने अपना कल्याणकारक नामक वैद्यक ग्रन्थ भी शायद इसी रामगिरिपर रचा था। वेंगीशत्रिकलिंगदेशजननप्रस्तुत्यसानूत्कटः प्रोद्यवृक्षलताविताननिरतैः सिद्धेश्च विद्याधरैः । Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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