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खेद इसी बातका है कि जहाँ अर्थ और आर्थिक योजनाएँ हमारे राष्ट्रके जीवनको रात-दिन उलझाये रहती हैं, वहाँ धर्मचक्र और 'सत्यमेव जयते' केवल देखनेकी चीज रह गये हैं । उनका अर्थ हमारे मनको वर्षों में एक बार भी नहीं छूता।
यह धर्मचक्र और यह राज्य-मंत्र हमें जिन खंडहरोंसे प्राप्त हुए हैं, उन-जैसे खंडहरोंके वैभवकी कथा ही श्री मुनि कान्तिसागरजी सुनाने चले हैं। वे श्वेताम्बर साधु हैं । पैदल ही चलते हैं। संयमको साधना जीवनका लक्ष्य है । उपदेश देना जीवनका कर्तव्य है। हमारे बहुतसे साधुअोंकी भांति वह भी उपदेश देते रहते और प्रात्मकल्याणके लिए ज्ञानकी साधना करते रहते, पर यह उनकी सूझ है कि उन्होंने अपनी साधनाका क्षेत्र अाधुनिक सजे-सजाये मंदिरोंकी अपेक्षा खंडहरोंको अधिक बनाया। पुरातत्त्वके विद्यार्थी में जो लगन, कला-मर्मज्ञता, ऐतिहासिक ज्ञानकी पृष्ठभूमि और वैज्ञानिक दृष्टि होनी चाहिए, वह भी सब श्री मुनि कान्तिसागरजीमें है। 'खंडहरोंका वैभव' इस बातका प्रमाण है। सबसे बड़ी बात यह कि वैज्ञानिककी दृष्टिके साथ उनमें कवि और कलाकारका हृदय है जो उन्हें खंडहरोंकी सौंदर्य-सृष्टि में इतना तल्लीन कर देता है कि वह घंटों खोये-खोये-से रहते हैं। वे लिखते हैं : ___ "मैं स्वयं किसी प्राचीन खंडहरमें जाता हूँ तो मुझे वहाँके एक-एक कणमें अानंदरसकी धारा बहती दीखती है और उस समय मेरी विचारधाराका वेग इतना बढ़ जाता है कि उसे लिपि द्वारा नहीं बाँधा जा सकता। खंडित प्रतिमाका अंश घंटों तक दृष्टिको हटने नहीं देता”......
"सचमुच पत्थरोंकी दुनिया भी अजीव है, जहाँ कलाकार वाणीविहीन जीवन-यापन करनेवालोंके साथ एकाकार हो जाता है " ___“मेरा विश्वास रहा है कि कलाकार खंडहरमें प्रवेश करता है, तब वहाँका एक-एक पत्थर उससे बाते करनेको मानो लालायित रहता है, ऐसा आभास होता है। कलाकार अवशेषोंको सहानुभूतिपूर्वक अंतरमनसे
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