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________________ मध्यप्रदेशका जैन-पुरातत्व की चढ़ाईकी अपेक्षा उतराई अधिक महँगी पड़ती है। मेरे साथी पण्डित राजूलालजी शर्मा (राजनाँदगाँव) व मुनि श्री मंगलसागरजीका आग्रह हुआ कि टोन्ही-वमलाई व तपसीतालको देखकर ही निवास स्थानपर जाना अधिक उचित होगा, क्योंकि २४ मार्चको हमें प्रस्थान करना था। अनिच्छासे मैं इन लोगोंके साथ आगे बढ़ा । मैं सोचता था कि दुपहरको अवशिष्ट स्थानोंको आरामके साथ देखना ठीक रहेगा; क्योंकि हमारा इस प्रकार भटकना केवल देखने के लिए न था, अपितु उन-उन स्थानों व तत्र स्थित अवशेषोंसे बातचीतका सिलसिला भी चलाना था। मेरा विश्वास रहा है कि कलाकार खंडहर में प्रवेश करता है,तब वहाँका एक-एक पत्थर उससे बातें करनेको मानो लालायित रहता है, ऐसा आभास होता है। कलाकार अवशेषोंको सहानुभूतिपूर्वक अन्तरमनसे देखता है, पर्यवेक्षण करता है, नवीन सामयिक स्फूर्तिदायक संस्करण तैयार करता है। आगे चलकर हम लोग शिव-मन्दिरके निकट रुके। एक पंडा भी हमारे पीछे पड़ गया। लगा वहाँको किंवदन्तियाँ सुनाने । एक किंवदन्ती हमारे कामकी मिल गई। शंकरजीका मन्दिर चबूतरेपर बना हुआ है; ज्योंही उसपर हम चढ़े, त्योंही हमारी दृष्टि दाई ओर पड़ी हुई पद्मआसनस्थ जिनप्रतिमापर केन्द्रित हो गई। इसी प्रतिमापर श्रीयुत महाजनसाहबने मेरा ध्यान आकृष्ट किया था। यह प्रतिमा भगवान् ऋषभदेव स्वामीकी है, यद्यपि प्रतिमाकी निर्माण-शैलीको देखते हुए कहना पड़ेगा कि इसके परिकरनिर्माणमें व्यवहृत कलात्मक उपकरण तो विशुद्ध महाकोसलीय ही हैं । इस प्रकारकी प्रप्तिमाएँ सम्पूर्ण महाकोसलमें पायी जाती हैं, सापेक्षतः मुझे इसमें एक नावीन्य दृष्टिगोचर हुआ। वह यह कि प्रान्तमें जितनी भी जैनमूर्तियाँ अद्यावधि मैंने देखी हैं,उनमें निम्न भागमें नवग्रहोंके स्थानपर केवल नवआकृतियाँ ही उत्कीर्णित रहती हैं, पर इसके परिकरमें नवग्रहोंका अंकन सशरीर ब सायुध है । मुझे ऐसा लगता है कि यह छत्तीसगढ़ प्रान्त स्थित जैनमूर्ति-निर्माण-विषयक कला-परम्पराका अनुकरण है। यों तो Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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