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जैन-पुरातत्त्व चेष्टा की, पर जैनसमाजने अपने अधिकारमें रखना ही उचित समझा, जब हमारे गुरुमन्दिरमें वह चीज़ लगी है, तो व्यर्थ ही क्यों निकाली जाय । . जैनाश्रित भावशिल्पकी अखण्ड परम्पराका इतिहास यद्यपि अाज हमारे सामने नहीं है, पर एतद्विषयक सामग्री प्रचुर परिमाणमें उपलब्ध है । मानव समाजको स्थायी शान्तिकी ओर आकृष्ट करना ही इसका विशिष्ट उद्देश्य है । भाव-शिल्पका विषय भले ही जैन हो, पर वह साम्प्रदायिकतासे ऊपर उठी हुई वस्तु है। नैतिकता और परम्पराके ये प्रतीक रस और सौन्दर्यकी सामग्री प्रस्तुत करते हैं। इनमेंसे प्राप्त होनेवाला आनन्द क्षणिक नहीं है । वह आत्मिक भावनाओंको जागृत करता है, स्वकर्तव्यकी
ओर उत्प्रेरित करता है। इसलिए कि वह गुणप्रधान है। ____ भावशिल्पमें भोगासनोंका समावेश अनुचित न होगा। कुछ लोगोंने यह समझ रखा है कि इस प्रकारको प्राकृतियाँ, तान्त्रिक परम्पराकी देन है। पर वास्तविक बात कुछ और ही है। एक समय था, प्रत्येक धर्म-मन्दिर और तीर्थों में इस प्रकारकी आकृतियाँ बनाई जाती थीं। विचारनेकी बात है कि जिस विकारात्मक दृष्टिकोणसे आजकी जनता उसे देखती है, क्या, वही दृष्टिकोण उन दिनों भी था ? सुझे तो शंका ही है। कलाकार अपनी कृतियोंके निर्माण-समय कृतिके गुण-दोषपर ध्यान नहीं देता पर अपने भावोंको--आकृतिका बाह्य स्वस्थ-सौन्दर्यको, विविध कल्पनाओं द्वारा किसी भी प्रकारके माध्यमसे व्यक्त करनेमें, अर्थात्-अानन्दकी सफल सृष्टि करनेमें तल्लीन रहता है, वह अपनी कोई भी कृति जगत्को प्रसन्न करनेके लिए नहीं बनाता । पर आनन्दमें उन्मत्त होकर जब वह सौन्दर्यसे परिप्लावित हो उठता है, तब सहसा अपने आनन्दमें जगत्को भी तदनुरूप बनानेकी चेष्टा करता है । वस्तुनिर्माण होने के बाद आलोचनाका प्रश्न खड़ा होता है।
जैनमन्दिरोंमें उपर्युक्त कोटिकी आकृतियाँ पाई जाती हैं, वे केवल सामयिक शिल्पकलाकी प्रतिच्छाया नहीं है। शत्रुजय, आबू, तारंगा, राणकपुरमें खुले या छिपे तौरपर भोगासन पाये जाते हैं । आरंग (जिला
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