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________________ १०६ खण्डहरोंका वैभव कितना बड़ा महत्त्व है, जिनको हम भूलते चले जा रहे हैं। ज्यों-ज्यों सामाजिक और राजनैतिक समस्याएँ खड़ी होती गईं या विकसित होती गईं, त्यों-त्यों पर्वतों में गुफाओंोंका निर्माण कम होता गया और आध्यात्मिक शान्तिप्रद स्थानोंकी सृष्टि जनावास -- नगरों में होने लगी । इतिहास इसका साक्षी है । मन्दिर पुरातन जैन अवशेषों में मन्दिरोंका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैनतीर्थ और मन्दिरोंका श्रेष्ठत्व न केवल धार्मिक दृष्टिसे ही है, अपितु भारतीय शिल्प- स्थापत्य और कलाकी दृष्टिसे भी, उनका अपना स्वतन्त्र स्थान है । इन मन्दिरोंपर से ही हमारी सांस्कृतिक विचारधारा स्पष्ट हो जाती है । वहाँपर हमें निवृत्तिमूलक भावनाका प्रत्यक्षीकरण होता है। वहाँ स्वपर के क्षुद्रतम भेदोंको भूल जाते हैं । श्रात्मतत्व निरीक्षणकी दृष्टि विकसित होती है और गुणके प्रति स्वाभाविक आकर्षण होता है | वहाँका वायुमंडल इतना शुद्ध और पवित्र रहता है कि दर्शक – यदि वह भावनाशील हो तो, आनन्द-विभोर हो उठता है - कुछ क्षणोंके लिए अपने आपको भुला देता है । मन्दिर हमारी आध्यात्मिक साधनाका पुनीत स्थान है, साथ ही साथ जिनधर्म और नैतिक परम्पराका समर्थक भी । मैं अपने कई निबंधों में सूचित कर चुका हूँ कि, श्रमणसंस्कृतिका अन्तिम साध्य मोक्ष होते हुए भी वह समाज के प्रति कभी उदासीन नहीं रही । मन्दिर आध्यात्मिक स्थान होते हुए भी कलाकारोंने अपने मानसिक भावोंके द्वारा, उसे ऐसा अलंकृत किया कि साधक आन्तरिक सौंदर्यकी उपासना के साथ, बाहरी पृथ्वीगत सौंदर्यसे नैतिक और पारम्परिक अन्तश्चेतना जगानेवाले उपकरणों द्वारा वीतरागत्वकी ओर बढ़ सकें । यहाँपर यह प्रश्न उपस्थित होते हैं कि मन्दिरोंका निर्माण सबसे Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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