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खण्डहरोंका वैभव
चांदवड़
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यहाँ पर अहिल्याबाई होल्करका जन्म हुआ था । श्राज भी उनका विशाल और प्रेक्षणीय राजमहल विद्यमान है । प्राचीन जैनसाहित्य में इसका नाम " चन्द्रादित्यपुरी" के रूपमें मिलता है । कहा जाता है इसे यादववंशीय दीर्घ पन्नारने बसाया था । ८०१ ईस्वी से १०७३ तक यादवोंका राज्य रहा । यह नगर पहाड़ के निम्न भाग में बसा है। पहाड़की ऊँचाई ४०००-४५०० फुट है । इसपर जानेका मार्ग बड़ा विलक्षण है । पैर फिसलने पर बचनेकी आशा कम ही समझनी चाहिए। पहाड़ीपर जाते हुए आधे रास्ते में रेणुकादेवीका मन्दिर आता है । जाने यह रेणुकादेवीका स्थान कबसे प्रसिद्ध हो गया । वस्तुतः यह जैन- गुफा है । यद्यपि बहुत बड़ी नहीं है, पर शिल्प स्थापत्यकी दृष्टिसे निःसंदेह महत्त्वपूर्ण है । गुफामें तीनों ओर की दीवालोंमें तीर्थंकरों की विस्तृत परिकरवाली अत्यन्त सुन्दर कोरनीयुक्त मूर्तियाँ खुदी हैं । शासनदेव - देवियों की मूर्तियाँ भी काफी हैं । जैन- गुफा निर्माण कलाका एक प्रकारसे यह अन्तिम प्रतीक जान पड़ता है । कारण कि इसमें विकसित मूर्तिकलाके लक्षण भलीभाँति परिलक्षित होते हैं । प्रत्येक यक्ष-यक्षिणियाँ अपने वाहन और श्रायुधसे सुसज्जित तो हैं ही साथ ही साथ मुखाकृति भी जैन - शिल्प- शास्त्रानुसार है । जैनमूर्ति निर्माणकला विकासकी परम्परा इसके एक-एक चप्पेपर लक्षित होती है । इसके मूलनायक चन्द्रप्रभुजी हैं। सभी मूर्तियाँ सिन्दूर से बुरी तरह पोत दी गई हैं और प्रति दिन तैल स्नान करती हैं । जनताने इसे अपने ऐहिक स्वार्थपूर्तिका तीर्थ बना रखा है । बलिदान भी १६३८ तक होता था । पंडे लोग यहाँ के बड़े पटु हैं । यदि उनको पता चल जाय कि प्रेक्षक जैन हैं तो फिर भीतर दीपकका उपयोग न करने देंगे । काररण कि वे जानते हैं कि ये मूर्तियाँ जैन हैं- जैसा कि काफी झगड़े के बाद तय हो चुका है । पर वे अपने पेट पालने के लिए इन्हें छोड़ भी नहीं सकते । दुर्भाग्य से जैनियोंका, इनपर ध्यान ही अब कम रह गया है ।
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Aho ! Shrutgyanam