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खण्डहरोंका वैभव
तक पहुँचनेका शुभ प्रयास करती थीं। प्राकृतिक वायुमंडल भी पूर्णतः तदनुकूल था। प्रकृतिकी गोदमें स्वस्थ सौंदर्यका बोध ऐसे ही स्थानोंमें हो सकता है । वहाँको संस्कृति, प्रकृति और कलाका त्रिवेणी संगम मानव को आनन्द विभोर कर देता है। स्वाभाविक शान्ति ही चित्तवृत्तियोंको स्थिर कर निश्चित मार्गकी ओर जानेको इंगित करती हैं। इसमें उकेरी हुई सुन्दर कलापूर्ण जिनप्रतिमाएँ दर्शनार्थीको आकृष्ट कर लेती हैं । राग, द्वेष, मद, प्रमाद एवं आत्मिक प्रवंचनाओंसे बचने के लिए, शून्य ध्यानमें विरत होने में जैसी सहायता यहाँ मिलती है, वैसी अन्यत्र कहाँ ? सत्यकी गहन साधनाके लिए एकान्त स्थान नितान्त अपेक्षित है। कुछ गुफाएँ तो ऐसी हैं, जहाँसे हटनेको मन नहीं होता । जिनमूर्ति एवं तदंगीभूत समस्त उपकरणोंसे सुसजित रूपशिल्प कलाकारकी दीर्घकालव्यापी साधनाका सुपरिचय देती है । दैनिक जीवन और उनके प्रति औदासिन्य भावोंकी प्रेरणात्मक जागृतिको उद्बुद्ध करानेवाले तत्वोंका समीकरण इन भास्कर्य सम्पन्न कृतियोंकी एक-एक रेखामें परिलक्षित होता है । उचित मात्रामें सौंदर्य बोधके लिए आध्यात्मिक श्रम अपेक्षित है । आत्मस्थ सौंदर्य दर्शनार्थ जीवनको साधनामय बनाना ही श्रमणसंस्कृतिका लक्ष है।
भारतीय शिल्प-स्खापत्य कलाके विदेशी अन्वेषकोंमें फर्गुसनका नाम सबसे पहले आता है । उन्होंने जैन-स्थापत्यपर भी प्रकाश डाला है, परन्तु जैन और बौद्ध-भेदको न समझने के कारण कई भूलें भी कर दी हैं, जिनका परिमार्जन वांछनीय है । उदाहरणार्थ राजगृहको ही लें । वहाँपर सोनभंडारमें जैनमूर्तियाँ और धर्मचक्र उत्कीर्णित हैं। इनको और भी कई विद्वान् बौद्धकृति मानते हैं, वस्तुतः यह मान्यता भ्रामक है, क्योंकि वहाँपर स्पष्टतः इन पंक्तियोंमें लेख खुदा हुआ है
१ निर्वाणलाभाय तपस्वि योग्ये शुभे गृहेर्हत्य ति] मा प्रतिष्ठते [1] २ आचार्य यत्नं मुनिवरदेवः विनुक्तये कारय दीर्घ (?) तेज (en) जैन-साहित्यके कई उल्लेखोंसे इनका जैनत्व सिद्ध है। प्राचीन
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