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________________ ( so) आगमापायी भावों को 'उपादेय' शब्द से और उनके आधारभूत भावों को 'उपादान' शब्द से व्यवहृत करने पर स्वद्रव्यता का अर्थ होगा स्वात्मक उपादेय की उपादानकारणता । स्वद्रव्यता का यह अर्थ समझ लेने पर उक्त प्रश्नों का समाधान पाना सरल हो जाता है । जैसे रूपवान् के तादात्म्य का मूल रूपद्रव्यता के द्रव्यमात्र में न मानने का कारण क्या है ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि रूप का जनन आदि सब द्रव्यों में नहीं होता, अतः रूपात्मक विशेष की अपेक्षा सामान्यरूपता या रूपात्मक पर्याय की अपेक्षा द्रव्यरूपता अथवा रूप की उपादान कारणता सब द्रव्यों में नहीं मानी जाती, इसीलिये रूपद्रव्यता का अस्तित्व द्रव्यमात्र में नहीं माना जाता । इसी प्रकार गुणवान् के तादात्म्य का मूल गुणद्रव्यता को द्रव्यमात्र में मानने का कारण क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि गुण का जनन आदि सब द्रव्यों में होता है अतः गुणात्मक विशेष की अपेक्षा सामान्यरूपता या गुणात्मक पर्याय की अपेक्षा द्रव्यरूपता अथवा गुणात्मक कार्य की उपादानकारणता सब द्रव्यों में मानी जाती है, इसी लिये गुणद्रव्यता का अस्तित्व द्रव्यमात्र में माना जाता है । यहाँ यह शंका हो सकती है कि जैसे जिन द्रव्यों में रूप का अस्तित्व होता है, केवल उनकी दृष्टि से द्रव्य शब्द का प्रयोग करने पर " द्रव्य रूपवान् होता है" इस व्यवहार को प्रामाणिकता और सब द्रव्यों की दृष्टि से द्रव्य शब्द का प्रयोग करने पर उक्त व्यवहार की अप्रामाणिकता, ये दोनों ही बातें मान्य हो सकती हैं । एवं एक घट के रहते हुये भी अविद्यमान घट के अभाव की की प्रामाणिकता और विद्यमान । दृष्टि से "इस स्थान में घट नहीं है" इस वाक्य घट के अभाव की अथवा घटसामान्याभाव की दृष्टि से उक्त वाक्य की अप्रामाणिकता ये दोनों बातें मान्य हो सकती हैं उसी प्रकार स्वद्रव्यतामूलक तादात्म्य के समान एकजातीयतामूलक तादात्म्य भी माना जा सकता है, अतः जो पदार्थ स्वद्रव्यतामूलक तादात्म्य को प्राप्त करता है वह एकजातीयतामूलक तादात्म्य को नहीं प्रकार कर सकता - यह कथन ठीक नहीं है । इसका उत्तर इस श्लोक के उत्तरार्ध में इस प्रकार दिया गया है । तात्पर्यभेद, दृष्टिभेद अथवा अपेक्षाभेद से पदार्थों की अनेकान्तरूपता जैनागमों में ही प्रतिपादित हुई है और जैनागमों के जन्मदाता जिनेन्द्र भगवान् ने पदार्थों की अनेकान्तरूपता -स्वरूप अपनी निधि को सप्तभङ्गीरूपिणी मञ्जूषा में सुरक्षित रूप से रखकर उसे स्याद्वाद की अपनी मुद्रा से अंकित कर दिया है, अतः जिन लोगों की अन्तरात्मा जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति से अनुप्राणित नहीं है वे लोग उस निधि को प्राप्त करने में सर्वथा असमर्थ हैं । Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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