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________________ ( ६६ ) तादात्म्य व्यवहृत होता है उसका कारण उस पदार्थ की जातिगत एकता नहीं किन्तु कुण्डल और अङ्गद इन दोनों अवस्थाओं में अनुगत, अक्षुण्ण भाव से स्थित रहने वाले सुवर्णद्रव्य की एकता ही है। .. यदि उसका कारण जातिगत एकता होती तो "जिस जाति का पदार्थ कुण्डल रूप में था उसी जाति का पदार्थ अङ्गद रूप में परिवर्तित हो गया" अथवा "कुण्डल और अङ्गद ये एकजातीय पदार्थ की दो अवस्थायें हैं'' इसी प्रकार का व्यवहार होता न कि 'जो कुण्डल के रूप में था वही अङ्गद के रूप में बदल गया' अथवा 'कुण्डल और अङ्गद ये एक ही सुवर्णद्रव्य की दो अवस्थायें हैं" ऐसा व्यवहार होता, यह तो कुण्डल और अङ्गद इन दोनों अवस्थाओं के आधार द्रव्य की एकता ही से सम्भव है। स्वद्रव्यतामूलक तादात्म्य का प्रतिनिधित्व एकजातीयता नहीं कर सकती, इसी लिये "द्रव्य रूप वाला है-द्रव्यं रूपवत्' इस प्रकार द्रव्यमात्र में रूपवान् के तादात्म्य का व्यवहार नहीं होता, किन्तु "द्रव्य गुण वाला है -- द्रव्यं गुणवत्" इस प्रकार द्रव्यमात्र में गुणवान् के तादात्म्य का व्यवहार होता है, क्योंकि रूपवान् के तादात्म्य का मूल रूपद्रव्यता द्रव्यमात्र में नहीं है परन्तु गुणवान् के तादात्म्य का मूल गुणद्रव्यता द्रव्यमात्र में है । यदि रूपवान् के तादात्म्य का मूल रूपद्रव्यता के बदले रूपवान् की सजातीयता को माना जायगा तो द्रव्यत्व जाति के द्वारा रूपवान् की सजातीयता सभी द्रव्यों में रहने के कारण रूपवान् का तादात्म्य द्रव्यमात्र में प्राप्त होगा। फलतः द्रव्यमात्र में रूपवान् के तादात्म्य-व्यवहार की प्रसक्ति अनिवार्य हो जायगी। __यहाँ इस प्रश्न का उठना स्वाभाविक है कि द्रव्यमात्र में रूपद्रव्यता के अस्तित्व का अस्वीकार और गुणद्रव्यता के अस्तित्व का स्वीकार क्यों किया जाता है ? इसका उत्तर समझने के लिये स्वद्रव्यता का अर्थ समझना होगा, जो इस प्रकार है। जगत् के आगमापायी भावों का जनन और निधन अथवा प्राकट्य और तिरोधान जिन आधारभूत भावों में होता है उन्हें 'सामान्य' और आगमापायी भावों को 'विशेष' शब्द से व्यवहृत करने पर स्वद्रव्यता का अर्थ होगा स्वात्मक विशेष की अपेक्षा सामान्यरूपता । और यदि आगमापायी भावों को 'पर्याय' और उनके आधारभूत भावों को 'द्रव्य' शब्द से व्यवहृत किया जायगा तो स्वद्रव्यता का अर्थ होगा स्वात्मक पर्याय की अपेक्षा द्रव्यरूपता, इसी प्रकार Aho! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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