SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को जल में जलेतरभेद के वैशिष्ट्य का बोधक माना गया तो उसे जलेतरभेदरूप मानना ही होगा, अन्यथा वह जलेतरभेद के वैशिष्ट्य का बोधक न होगा, क्योंकि एक धर्म के वैशिष्टय का बोध दूसरे धर्म से नहीं होता, यह नियम है, और इस नियम को मानना अति आवश्यक है क्योंकि यह नियम यदि न माना जायगा तो रूप से रसविशिष्टता का तथा घदत्वादि धर्मों से पटत्वादिविशिष्टता की प्रतीति का प्रसङ्ग होगा । इस प्रकार जलत्वादि धर्मों के अजलादिव्यावृत्ति-रूप होने के कारण यह मत उचित ही है कि जलत्वादि सामान्य धर्मो का व्यक्ति के समान विधिरूपभावरूप से अस्तित्व नहीं है। यद्यपि जलत्वादि धर्मों की अजलादिव्यावृत्ति-रूपता न्यायादि मतों में भी है तथापि न्यायादि मतों में उनकी भावरूपता भी मानी जाती है अर्थात् अजला. दिव्यावृत्ति की जलत्वादि से भिन्न सत्ता नहीं मानी जाती। तात्पर्य यह है कि न्यायादि मतों में जलत्वादि की भावरूपता की ही प्रधानता है अभावरूपता की नहीं, अर्थात् भाव से अभाव की गतार्थता है, अभाव से भाव की नहीं। किन्तु बौद्धमत में अजलादिव्यावृत्ति से भावात्मक जलत्वादि की गतार्थता बतायी जाती है, अर्थात् अजलादिव्यावृत्ति से ही भावात्मक जलत्वादि के प्रयोजनों का सम्पादन हो जाता है। इसलिये भावात्मक जलत्वादि के अस्तित्व का स्वीकार अनावश्यक और अप्रामाणिक है। इस ऊर्ध्वकथित रीति से भी जल की प्रतीति में अजलव्यावृत्ति के भान का एवं जलत्वादि में अजलादिव्यावृत्तिरूपता का समर्थन नहीं हो सकता, क्योंकि जलत्व को यदि अजलव्यावृत्ति से भिन्न न माना जायगा और अजलव्यावृन्नि की प्रतीति के पूर्व जलत्व रूप से जल की प्रतीति न मानी जायगी तो अजलव्यावृत्ति का ज्ञान ही न हो सकेगा। कहने का भाव यह है कि अजलव्यावृत्ति जलेतरभेद-रूप है। इसलिये जब तक उसके प्रतियोगी जलेतर का जलेत रत्व-रूप से ज्ञान नहीं होगा तब तक उसका ज्ञान नहीं हो सकता, और जब तक जलेत रत्व के प्रतियोगी जल का जलत्व रूप से ज्ञान नहीं होगा तब तक जलेतरत्व का ज्ञान नहीं हो सकता। क्योंकि प्रतियोगितावच्छेदक अर्थात् प्रतियोगी में विशेषणींमूत धर्म-रूप से प्रतियोगी का ज्ञान प्रतियोगी से विशेषित अभाव के ज्ञान का कारण होता है। इस प्रकार अजलव्यावृत्ति के ज्ञान में जलत्व के ज्ञान की अपेक्षा होने से जलत्व को उससे भिन्न और उससे पूर्व ज्ञायमान मानना होगा। अन्यथा यदि जलत्व अजलव्यावृत्ति-रूप ही होगा तो अजलव्यावृत्ति के ज्ञान में अजलव्यावृत्ति Aho! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy