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________________ ( ५५ ) अनुमान रूप से उसका उपयोग इस प्रकार होता है इस काल की वस्तु पूर्वकाल की वस्तु से अभिन्न है क्योंकि इस काल की वस्तु पूर्वकाल की वस्तु का विरुद्धधर्मा नहीं है और उससे अभिन्न रूप से प्रत्यभिज्ञा द्वारा गृहीत होती है । अथवा : प्रत्यभिज्ञा द्वारा अभिन्नरूप से गृहीत होने वाली विभिन्नकालिक वस्तुयें अपने सम्बन्धी काल का भेद होते हुये भी एक दूसरे से अभिन्न हैं, क्योंकि उनमें परस्पर विरुद्ध धर्मों का सम्बन्ध नहीं है, जिन वस्तुओं में परस्पर विरुद्ध धर्मों का सम्बन्ध नहीं होता वे अपने सम्बन्धी के भेद होने पर भी एक दूसरे से अभिन्न होतो हैं, जैसे विभिन्न परमाणुओं से संयुक्त एक परमाणु । प्रत्यभिज्ञा के अतिरिक्त अनुगत प्रतीति और अनुगत व्यवहार भी स्थिर भाव की सिद्धि में प्रमाण हैं, अर्थात् जैसे विभिन्न कालों में एक स्थायी भाव न मानने पर विभिन्नकालिक भावों में एकता को ग्रहण करनेवाली प्रत्यभिज्ञा की उत्पत्ति नहीं होती वैसे विभिन्नकालिक जल आदि पदार्थों में जलत्व आदि भावात्मक स्थायी धर्मं न मानने पर विभिन्नकालिक जलों में जल की अनुगत प्रतीति और अनुगत व्यवहार की भी उपपत्ति नहीं हो सकती, और इस प्रकार जब जलत्व आदि स्थायी भावात्मक धर्म मानने पड़ जाते हैं तब भावमात्र को क्षणिक मानने का आग्रह बौद्धों को छोड़ना ही पड़ेगा । इस पर बौद्धों का उत्तर यह है कि जल आदि पदार्थो की अनुगत प्रतीति और अनुगत ब्यवहार के लिये जलत्व आदि भावात्मक स्थायी धमं मानने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि अजलव्यावृत्ति रूप अभावात्मक जलत्व से ही जल की उक्त प्रतीति तथा उक्त व्यवहार की उपपत्ति हो सकती है । उनका कहना यह है कि यद्यपि - जल की प्रतीति में भावभूत जलत्व का भान नहीं होता यह कथन सहसा उचित नहीं हो सकता क्योंकि जल की प्रतीति में लोक को भावात्मक जलत्व के भान का अनुभव होता है, तथापि यह मानना भी आवश्यक है कि जल की प्रतीति में जल में अजलव्यावृत्ति - जल से भिन्न वस्तुओं के भेद, का भी भान होता है, यदि ऐसा न माना जायगा तो जल की प्रतीति में जलत्व जल का विशेषण न होगा, क्योंकि विशेषण वही होता है जो विशेष्य में इतरभेद का बोध कराता है । अतः जल की प्रतीति में यदि जलत्व जल में जलेतरभेद का बोधक न होगा तो वह जल का विशेषण न हो सकेगा। और यदि जलत्क Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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