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हेतु की असिद्धि, क्योंकि स्थायी पदार्थ में क्रमकारिता की उपपत्ति हो जाने से उसमें क्रम-यौगपद्याभाव रूप हेतु का अभाव है ।
क्रमकारितापक्ष में एक कार्य के समय अन्य सभी कार्यों के जन्म होने की जो आपत्ति उद्भावित की गयी थी, वह नहीं हो सकती, क्योंकि एककार्य के समय अन्य कार्यों के सहकारी कारणों के असन्निधान से कार्यान्तर के जन्म की आपत्ति का परिहार हो सकता है। तात्पर्य यह है कि सहकारियों के सन्निधान में कार्य को करना और उनके असन्निधान में कार्य को न करना ये दोनों ही कारण के स्वभाव हैं । ये दोनों धर्म एक व्यक्ति में समाविष्ट होते प्रत्यक्ष देखे जाते हैं अतः इनमें विरोध नहीं माना जा सकता ।
सहकारियों के सन्निधान में कार्य करना - यह जिस व्यक्ति का स्वभाव होगा, सहकारियों के असन्निधान में कार्य न करना - यह उस व्यक्ति का स्वभाव नहीं हो सकता, क्योंकि ये दोनों धर्म स्पष्ट रूप से परस्पर विरोधी हैं, इस आक्षेप के उत्तर में नैयायिक का कथन यह है कि जो कारण अपने जिस कार्य के अन्य कारणों का सन्निधान जब प्राप्त करता है तब वह कारण उस कार्य को करता है, और जब नहीं प्राप्त करता तब नहीं करता - कारण का स्वभाव माना गया है, और इस में कोई दोष नहीं है ।
- यह
नाशोऽत्र देतुरहितो ध्रुवभाविताया
स्तेनागतं स्वरसतः क्षणिकत्वमर्थे ।
इत्येतदप्यलमनल्पविकल्मजालै
रुच्छिद्यते तव नयप्रतिबन्दितश्च ॥ २१ ॥
पैदा होने वाले भाव पदार्थ का नाश कारणनिरपेक्ष है क्योंकि वह अवश्यम्भावी है और जो अवश्यम्भावी होता है उसके होने में देर नहीं होती यह एक निश्चित नियम है, इसलिये विना किसी प्रमाणान्तर की अपेक्षा किये ही पदार्थ की क्षणिकता सिद्ध हो जाती है । तात्पर्य यह है कि जब नाश कारण निरपेक्ष है तो उसके होने में विलम्ब नहीं हो सकता, क्योंकि कारण के
सन्निधान में विलम्ब होने से ही कार्य की उत्पत्ति में विलम्ब होता है, पदार्थनाश में प्रतियोगी पदार्थ से अतिरिक्त किसी कारण की अपेक्षा नहीं है, अतः पदार्थ की उत्पत्ति हो जाने पर उसका नाश सद्यः हो जाता है, इस प्रकार
प्रत्येक पैदा होने वाले पदार्थ का उसके प्रत्येक जन्य पदार्थ क्षणिक होता है, वाला कोई पदार्थ नहीं है अतः उक्त होता है ।
दूसरे क्षण में ही नाश हो जाने के नाते क्षणिकवादी के मत में न पैदा होने रीति से सारा विश्व ही क्षणिक सिद्ध
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