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________________ ( ३१ ) तो सभी ज्ञानात्मक देश और काल में अपने उस ज्ञानात्मक कार्य का जनन करेगी। फलतः समस्त देश और काल में एक कार्य का अस्तित्व हो जाने से वस्तु की एकक्षणमात्रता नहीं सिद्ध होगी । और उसे यदि अन्य ज्ञानात्मक देश और काल में अपने उस ज्ञानात्मक कार्य के प्रति असमर्थ माना जायगा तो एक ही कार्य के प्रति सामर्थ्य और असामर्थ्य ऐसे दो विरुद्र धर्मो के समावेश से उस व्यक्ति में उसीका भेद हो जाने से उसका स्वरूपव्याघात हो जाने के कारण शून्यवाद के साम्राज्य का उदय हो जायगा । और यदि कार्यकारणभाव को अस्वीकार कर वह विज्ञानवाद को अपनायेगा तो कारणतारूप सामर्थ्य की असिद्धि होने से आपादक की अप्रसिद्धि होने के कारण प्रसङ्ग-तर्क की एवं न्यायमत में अप्रसिद्ध का अभाव न माने जाने के कारण सामर्थ्याभावरूप साध्य की अप्रसिद्धि होने से विपरीतानुमान की प्रवृत्ति न होगी । अतः पूर्वक्षणस्थ और द्वितीयक्षणस्थ वस्तुओं में सामर्थ्य और असामर्थ्यं ऐसे विरुद्ध धर्मों का समावेश न होने से उनका परस्पर भेद नहीं सिद्ध होगा । भेद न सिद्ध होने पर उसके उपपादनार्थं क्षणिकता की भी सिद्धि न होगी । फलतः सत्ता और क्षणिकता का सहचार दर्शन न होने के में क्षणिकता की व्याप्ति नहीं सिद्ध होगी । अतः क्षणिकता के का उपयोग नहीं किया जा सकेगा । कारण सत्ता साधनार्थ सत्ता सत्ता का साधनरूप से उपयोग न किये जा सकने का एक कारण यह भी है कि बौद्धमत में सत्ता अर्थक्रियाकारितारूप है । और कार्यकारणभाव के अभावपक्ष में अर्थक्रियाकारिता - किसी कार्य की कारणता असिद्ध है । इस प्रकार स्वरूपतः और व्याप्तितः दोनों दृष्टियों से असिद्ध होने के कारण सत्ता क्षणिकता का साधन न कर सकेगी। फिर किसी प्रकार का बाधक न रहने के कारण "यह वही मनुष्य है जिसे कल्ह देखा था : इस विभिन्न काल सम्बन्धी मनुष्य में एकत्व को बताने वाली प्रत्यभिज्ञा के बल से स्थिर बाह्य वस्तु की सिद्धि हो जायगी, अतः यह कथा सर्वथा सत्य है कि योगाचार की विज्ञानभूमि में भी सौत्रान्तिक निरापद या कृतार्थ नहीं हो सकता । देशे स्वभावनियमाद् यदि नापराधः कालेऽपि मास्तु स निमित्तभिदाऽनुचिन्त्या । तैस्तैर्नयेयं वहतिर्यदनन्तधर्म कोडीकृतार्थविषया भवतो विचित्रा ॥ १६ ॥ अपने आश्रयस्थान में ही कार्य का जनन करना यह वस्तु का नियत स्वभाव है, स्वभाव के ऊपर किसी तर्क का शासन नहीं चल सकता, उसका अधि Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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