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________________ ( ३० ) अवयवों का निकल जाना और नये अवयवों का अन्तर्निविष्ट हो जाना अयौक्तिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मनुष्य आदि प्राणियों के पूर्व शरीर के रहते उसके अवयवों का जाना ओर आना तथा उसमें परिमाण का परिवर्तन देखा जाता है । तस्य त्वदागममृते शुचियोग, योगा चारागमे प्रविशतोऽपि न साध्यसिद्धिः ! तत्रापि हेतुफलभावमते प्रसङ्गा शमन कर निधि हो । वादियों को भङ्गात्तदिष्टिविरहे स्थिरबाह्यसिद्धेः ॥ १५ ॥ हे भगवन् ! तुम सभी प्राणियों के पारस्परिक वैरभाव का उनमें सौहार्द की सरस सरिता प्रवाहित करने वाले पवित्र योग के तुमने जिस स्याद्वाद दर्शन का आविष्कार किया है वह समस्त उपादेय है क्योंकि वह किसी वादी के मनोरथ का भङ्ग नहीं करता । फिर भी तुम्हारे ऐसे उत्तम आगम की उपेक्षा कर यदि सौत्रान्तिक नैयायिकों के तर्कशरों के प्रहार से अपनी रक्षा करने के लिये क्षणिक विज्ञानवादी योगाचार के सिद्धान्त की शरण लेगा तो भी उसके अभिलषित साध्य की सिद्धि न होगी । क्योंकि कार्यकारणभावरूप अपने वैरी का मार्गनिरोध किये बिना ही यदि वह योगाचार के विज्ञान नगर में प्रवेश करेगा तो उसको उस आपत्ति का परिहार न होगा जिसे टालने के लिये उसने यह नया स्थान चुना है । और यदि कार्यकारणभाव का अस्तित्व मिटाकर वह ऐसा करेगा तो स्थिर एवं बाह्य वस्तु के स्वीकार का भार उसे अवश्यमेव उठाना पड़ेगा । कालभेद से एक देश में और देशभेद से एक काल में भावाभावात्मक पदार्थों अविरोध न मानने पर पूर्वश्लोक में बाह्य वस्तु की सत्ता का लोप होगा, यह आपत्ति सौत्रान्तिक के प्रति प्रदर्शित की गयी है । सौत्रान्तिक क्षणिक बाह्यार्थवाद में उसके परिहार का उपाय न पाकर योगाचार के क्षणिक विज्ञानवाद की शरण लेकर उस आपत्ति को अनापत्ति घोषित करने की चेष्टा कर सकता है । अतः इस श्लोक में उसकी इस सम्भावित चेष्टा को भी व्यर्थ सिद्ध ती गयी है । करने की युक्ति इस श्लोक का भावार्थ यह है कि यदि सौत्रान्तिक कार्यकारणभाव मानकर विज्ञानवाद का अवलम्बन करेगा तो सर्वदा और सर्वत्र सभी कार्यों के जनन की अथवा शून्यवाद की प्रसक्ति होगी। जैसे जो ज्ञानात्मक वस्तु जिस ज्ञानात्मक देश या काल में जिस ज्ञानात्मक कार्य का जनन करती हैं वह यदि अन्य ज्ञानात्मक देश और काल में भी उस ज्ञानात्मक कार्य के जनन में समर्थ होगी Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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