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________________ तर्क ( ६ ) प्रथमक्षणस्थ बीज आदि पदार्थ यदि द्वितीय क्षण में होने वाले कार्य के प्रति समर्थ होते तो उसे प्रथम क्षण में ही करते, जो जिस क्षण में जिस कार्य के प्रति समर्थ होता है वह उस क्षण में उस कार्य को पैदा करता है । जैसे द्वितीय क्षणस्थ बीज आदि पदार्थ द्वितीय क्षण में होने वाले कार्य के प्रति समर्थ होने से उसे उस क्षणमें पैदा करते हैं । विपरीतानुमान - प्रथमक्षणस्थ बीज आदि पदार्थ हैं क्योंकि वे उसे नहीं करते, जो जिस असमर्थ होता है, जैसे सिकता के असमर्थ हैं । कण द्वितीय-क्षण भावी कार्य के प्रति असमर्थ करता वह उसके प्रति करते हुये उसके प्रति कार्य को नहीं तेल नहीं पैदा इस विचार में यह बात भी कही जा सकती है कि जो बीज कुसूल में रहने के समय अंकुर के प्रति असमर्थ है वहीं खेत में बोये जाने पर उसे पैदा करने में समर्थ हो जाता है । एवं पहले क्षण का बीज जो दूसरे क्षण के कार्यों के प्रति पहले क्षण में असमर्थ है वही दूसरे क्षण में उनके प्रति समर्थ हो जाता है, इस प्रकार समयभेद से सामर्थ्य और असामर्थ्य इन दोनों धर्मो का एक व्यक्ति में निवेश हो सकता है, परन्तु यह ठीक नहीं, क्योंकि वस्तु का यह स्वभाव है कि जो प्रथमतः जिस कार्य में असमर्थ होता है वह बाद में भी उस कार्य में समर्थ नहीं हो पाता, जैसे केले का बीज आम का पौधा पैदा करने में प्रथमतः असमर्थ होने से सदैव उसमें असमर्थ ही रहता है, अतः यही मन्तव्य समुचित है कि अंकुर के प्रति असमर्थ कुसूलस्थ बीज अंकुर के प्रति समर्थ क्षेत्रस्थ बीज से एवं द्वितीयक्षणभावी कार्य के प्रति असमर्थ प्रथमक्षणस्थ पदार्थ उसके प्रति समर्थद्वितीयक्षणस्थ पदार्थों से भिन्न तथा क्षणिक है । बौद्धों के इस कथन के उत्तर में नैयायिक आदि का वक्तव्य यह है कि सामर्थ्य के स्वरूप के बारे में अनेकों विकल्प हैं जैसे- सामर्थ्य - कारणता के दो प्रकार हैं, फलोपधायकता और स्वरूपयोग्यता । फलोपधायकता के दूसरे नाम करण या कारित्व भी हैं, उसकी परिभाषा है- अपने कार्य के ठीक पहले क्षण में उसके जन्मस्थान में कारण की विद्यमानता । स्वरूपयोग्यता के दो भेद हैं सहकारियोग्यता और स्वरूपयोग्यता । सहकारियोग्यता का अर्थ है - सहकारी कारणों के साथ अपने कार्य के ठीक पहले क्षण में उसके जन्मस्थान में कारण का विद्यमान होना । स्वरूपयोग्यता के तीन भेद हैं- कारणतावच्छेदकधर्म, कुर्वद्रूपत्व और सहकारिविरहप्रयुक्तकार्याभाव । कारणतावच्छेदकधर्म का अर्थ Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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