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________________ (१६७ ) यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि केवल ज्ञान का उदय होने के पूर्व सच्चरित्र के आराधन से ही उन कर्मों का नाश मानना होगा, तब यदि उन कर्मों का नाश सच्चरित्र से हो सकता है तो उसी प्रकार सच्चरित्र से अन्य संचितः कर्मों का भी नाश होने में कोई बाधा न होने से उनके नाशार्थ केवलज्ञानी में उन असंख्य कर्मों का भोग मानने की कोई आवश्यकता नहीं है, अतः यही बात उचित प्रतीत होती है कि संचित कमों के नाशार्थ केवलज्ञानी के लिये भी सच्चरित्र का पालन आवश्यक है। __इस पर यदि यह शङ्का उठाई जाय कि अदृष्टात्मक पूर्व कर्मों का नाश यदि कभी तत्त्वज्ञान से, कभी सच्चरित्रपालन से और कभी भोग से माना जायगा तो व्यभिचार होगा, अतः पूर्वकर्मनाश के प्रति एक मात्र भोग को ही कारण मानना चाहिये, तो यह उचित नहीं है, क्योंकि-नाश्य और नाशक में वैजात्य की कल्पना कर विजातीय अदृष्ट के नाश के प्रति विजातीय सच्चरित्र, विजातीय अदृष्ट के नाश के प्रति विजातीय तत्त्वज्ञान और विजातीय अष्टनाश के प्रति विजातीय भोग को कारण मानने से व्यभिचार की प्रसक्ति का परिहार सुकर हो जाता है। यदि यह प्रश्न उठाया जाय कि सच्चरित्र से पूर्व कर्मों का नाश तब तक नहीं होगा जब तक उससे तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति न हो जाय, अतः तत्त्वज्ञान ही कर्मनाश का कारण है सच्चरित्र तो तत्त्वज्ञान को पैदा करने से उपक्षीण होकर कर्मनाश के प्रति अन्यथासिद्ध हो जाता है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि कर्मनाश को उत्पन्न करने में तत्त्वज्ञान सच्चरित्र का व्यापार है और व्यापार से व्यापारी कभी अन्यथासिद्ध नहीं होता, यह सर्वसम्मत नय है, अतः व्यापारभूत तत्त्वज्ञान व्यापारी सच्चरित्र को कर्मनाश के प्रति अन्यथासिद्ध नहीं बना सकता। इस प्रकार उपर्युक्त युक्तियों से यही सिद्ध होता है कि तत्वज्ञान और सच्चरित्र दोनों मोक्ष के परस्परसापेक्ष कारण हैं। .. शानं क्रियेव विरुणद्धि ससंवराशं कर्म क्षिणोति च त्रयोंऽशमनुप्रविश्य । भोगः प्रदेशविषयो नियमो विपाके भाज्यत्वमित्यनध ! ते वचनं प्रमाणम् ॥ ८० ॥ इस श्लोक में समस्त अधों से मुक्त भगवान महावीर के वचन को प्रमाण मानते हुये जिस तथ्य का वर्णन किया गया है, वह इस प्रकार है, क्रिया-सच्चरित्र में विरति और संवर का तथा ज्ञान में सम्यक्त्व और संवर का समावेश होता है अतः क्रिया और ज्ञान दोनों क्रम से अपने अंध - Aho! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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