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________________ (१३७ ) उसके फल-स्वरूप जगत् के असंख्य पदार्थो की लोकसिद्ध सादिता और सान्तता का लोप हो जायगा। वस्तु को व्यापक रूप में भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि व्यापकता को यदि वस्तु का स्वभाव माना जायगा तो प्रत्येक पदार्थ का सर्वत्र अस्तित्व होने से सब स्थानों में सब पदार्थो के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। वस्तु को अव्यापक भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि अव्यापकता को यदि वस्तु का स्वभाव माना जायगा तो उसके लोकसम्मत आश्रय में भी उसकी व्याप्ति का लोप हो जाने से उसके नितान्त असत्त्व-शून्यता की प्रसक्ति होगी। इस प्रकार वस्तु की सत्ता के शून्यताग्रस्त हो जाने से अनन्तधर्मात्मक वस्तु के अस्तित्व-रूप उपजीव्य की सिद्धि न होने के कारण स्याद्वाद की प्रतिष्ठा असम्भव है। बौद्धों के इस आक्षेप के उत्तर में जैन विद्वानों का कथन यह है कि वस्तु के स्थूलत्व, अणुत्व आदि जिन धर्मों का निषेध उपर्युक्त रीति से किया गया है वे सब धर्म वस्तु में अपेक्षाभेद से कथंचित् विद्यमान हैं । वस्तु में उन धर्मों को स्वीकार करने पर जो दोष बताये गये हैं वे उन धर्मो को एकान्ततः स्वीकार वा अस्वीकार करने पर ही सम्भव हैं, अतः उन धर्मों के अभिन्न आस्पदरूप में वस्तु की सिद्धि होने में कोई बाधा न होने से स्याद्वाद-शासन पर किसी प्रकार की कोई आंच नहीं आ सकती। एतेन ते गुणगुणित्वहतेर्निरस्तं नैरात्म्यमीश ! समयेऽनुपलब्धितश्च । आत्मा यदेष भगवाननुभूतिसिद्ध एकत्वसंबलितमूर्तिरनन्तधर्मा ॥ ६१ ॥ ___ महावीर को ईश्वर के रूप में सम्बोधित करते हुये ग्रन्थकार का कथन यह है कि गुण और गुणी में भेद के अभाव तथा अनुपलब्धि से प्रसक्त होने वाला नैरात्म्य उसके स्याद्वादशासन में अनायास ही निरस्त हो जाता है क्यों कि इस शासन को वह अनुभव प्राप्त है जिसके साक्ष्य पर अनन्तधर्मात्मक एक व्यक्ति के रूप में आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि अपरिहार्य है। न्यायदर्शन के अनुसार आत्मा ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न आदि गुणों का आधार एक नित्य विभु द्रव्य है। ज्ञान आदि विशेष गुणों का उदय होने पर उनके साथ अन्तरिन्द्रिय-मन से उसका प्रत्यक्ष होता है । देह, इन्द्रिय आदि को उन गुणों का आश्रय मानने में अनेक दोष होने के कारण उन गुणों के अतिरिक्त आश्रय के रूप में आत्मा का अनुमान भी किया जाता है। Aho! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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