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________________ (१३६) ४. स्यादवक्तव्यः-कथंचित् अवाच्य है। ५. स्यादस्ति चावक्तव्यश्च-कथंचित् है तथा कथंचित् अवाच्य है । ६. स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च-कचित् नहीं है तथा कथंचित् अवाच्य है । ७. स्यादस्ति च नास्ति चावाव्यश्च-कथंचित् है, कथंचित् नहीं है तथा कथंचित् अवाच्य है। वस्तु की मान्यता के सम्बन्ध में जैनदर्शन की इस दृष्टि को ही स्याद्वाद शब्द से व्यवहृत किया जाता है। इसके विरोध में बौद्धों की ओर से यह कहा जाता है कि स्याद्वाद का यह शासन संगत नहीं है क्योंकि यह अनन्तधर्मात्मक वस्तु के अस्तित्व पर ही प्रतिष्ठित हो सकता है और वस्तु का अस्तित्व किसी भी रूप में सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि वस्तु का अस्तित्व यदि माना जायगा तो उसे स्थूल, अणु, भिन्न, अभिन्न, सापेक्ष, निरपेक्ष, व्यापक अथवा अव्यापक इन्हीं रूपो में से किसी रूप में मानना होगा, पर इनमें किसी भी रूप में उसे नहीं माना जा सकता। जैसे वस्तु को स्थूल रूप में नहीं स्वीकार किया जा सकता, क्योंकि उसे यदि स्थूल रूप में ही स्वीकृत किया जायगा तो अणु वस्तु के न होने से वस्तुवों की स्थूलता में न्यूनाधिक्य नहीं होगा, यह इस लिये कि वस्तुवों की स्थलता का न्यूनाधिक्य उन्हें निप्पन्न करने वाले अणुवों की संख्या के न्यूनाधिक्य पर ही निर्भर होता है, वस्तु को अणु रूप में भी नहीं स्वीकार किया जा सकता क्योंकि वस्तु यदि अणु रूप होगी तो उसका प्रत्यक्ष न हो सकने के कारण लोकव्यवहार का उच्छेद हो जायगा । वस्तु को भिन्न रूप में भी नहीं स्वीकृत किया जा सकता, क्योंकि वस्तु यदि भिन्न होगी तो अपने आप से भी भिन्न होगी, और अपने आप से भिन्न होने का अर्थ होगा अपनेपन का परित्याग अर्थात् शून्यता । वस्तु को अभिन्न रूप में भी स्वीकृत नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि वस्तु का स्वभाव अभिन्न होगा होगा तो कोई वस्तु किसी से भिन्न न होगी, फलसः घोड़े, बैल आदि की परस्पर भिन्नता का लोप हो जाने से एक के स्थान में दूसरे के भी समान विनियोग की आपत्ति होगी। वस्तु को सापेक्ष रूप में भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि इस पक्ष में प्रत्येक वस्तु के सापेक्ष होने से अपेक्षात्मक वस्तु को भी सापेक्ष कहना होगा, फलतः अपेक्षा की कल्पना के अनवस्थाग्रस्त होने से वस्तु की सिद्धि असम्भव हो जायगी। निरपेक्ष रूप में भी वस्तु की सत्ता नहीं मानी जा सकती क्योंकि वस्तु को निरपेक्ष मानने पर पूर्व और उत्तर अवधि की भी अपेक्षा समाप्त हो जाने से प्रत्येक वस्तु को अनादि और अनन्त मानना पड़ जायगा और Aho! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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