SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१३४ साथ रहेगा तो उस अवयव को अपने आपका आश्रय मानना होगा जो आत्माश्रय दोष के कारण सम्भव नहीं है, और यदि उस अवयव में अन्य अवयवरूप अंश के साथ रहेगा तो यह भी संगत न होगा क्योंकि एक अवयव में दूसरे अवयव की स्थिति नहीं है, यदि यह कहें कि अवयवी अपने अवयव में आश्रित ही नहीं होता, तो यह ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर अवयवों में अवयवी के रहने की लोकसिद्ध प्रतीति का अपलाप हो जायगा तथा अवयव-अवयविभाव के आधार का भङ्ग हो जायगा। फलतः इन सब विचारों का यही निष्कर्ष निकलता है कि अवयवी अपने तत्तत् अययवों में स्वरूपेण अर्थात् अंश का अवलम्बन किये विना ही आश्रित होता है और समग्र अथवा एक-एक अंश की दृष्टि से उनमें अनाश्रित रहता है। इस निष्कर्ष के फलस्वरूप यह बात सिद्ध होती है कि अवयवी तद्देशाश्रितत्व और तद्देशानाश्रितत्वरूप परस्पर-विरोधी धर्मों का आधार होने से कथंचित् अनेकात्मक होता है और एकता की अबाधित प्रतीति होने के कारण कथंचित् एकात्मक भी होता है। चित्रत्व तथा चित्रेतरत्व के समावेश का अर्थ यह है कि नील, पीत आदि अनेक जातीय रूपवाले अवयवों से जो अवयवी द्रव्य उत्पन्न होता है उसमें पीत आदि कोई एक जातीय ही रूप नहीं माना जा सकता क्योंकि ऐसा मानने पर उसके समस्त भागों में नील, पीत आदि किसी एक जातीय ही रूप के दर्शन की आपत्ति होगी। नील, पीत आदि समग्र रूपों की समष्टि भी नहीं मानी जा सकती, क्योंकि सब रूपों का अस्तित्व यदि सब भागों में होगा तो सब भागों में सब रूपों के अलग-अलग दर्शन की आपत्ति होगी और यदि एक रूप का एक भाग में तथा दूसरे रूप का दूसरे भाग में अस्तित्व होगा तो रूप के व्याप्यवृत्तित्व स्वभाव की हानि होगी। उस द्रव्य में नील, पीत आदि रूपों का उत्पत्ति न होकर किसी अन्य जाति के नितान्त नूतन रूप की उत्पत्ति होती है, यह भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि नीलत्व, पीतत्व आदि जातियों से भिन्न रूपजाति की सत्ता में कोई प्रमाण नहीं है, प्रत्युत एक नवोन जाति के रूप की कल्पना का गौरव है। यदि इन सब दोषों के कारण यह कहा जाय कि उक्त द्रव्य में कोई भी रूप नहीं रहता किन्तु वह वायु के समान नीरूप ही होता है, तो यह कथन भी उचित नहीं है, क्योंकि नीरूप होने पर वह नेत्र से ग्राह्य नहीं होगा। इसलिए अन्ततोगत्वा उस द्रव्य में ऐसे रूप का अस्तित्व मानना होगा जिसमें नीलत्व, पीतत्व आदि समस्त रूपजातियों का समावेश हो और जिसे चित्र शब्द से व्यवहृत किया जाय । चित्ररूप के इस स्वरूप की दृष्टि से द्रव्य के चित्र होने का अर्थ होगा। नीलत्व, पीतत्व Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy