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________________ ( १३३ ) प्रक्षिप्त द्रव्यों के विभिन्न रसों की समस्त विशेषतायें विद्यमान रहती हैं, वह रस उन द्रव्यों के अपने निजी रसों से विलक्षण होता है, तात्पर्य यह है कि पानक रस के निष्पादक द्रव्यों की अपेक्षा कटुता, मधुरता आदि रस-जातियों में परस्पर विरोध तथा उन जातियों के आश्रयभूत रसों में परस्पर भेद होता है, किन्तु तन्तत् द्रव्यों के मिश्रण से तयार किये गये पेय द्रव्य की अपेक्षा उन जातियों में अविरोध तथा उनके आश्रयभूत पेय रस में अभेद होता है, ठीक यही बात जगत् के सब पदार्थों के सम्बन्ध में है, अतः जगत् का प्रत्येक पदार्थ अनेकान्त रूप है, पदार्थ मात्र की अनेकान्तरूपता की यह सिद्धि ही अनेकान्तदर्शी आचार्यों का वह गंभीर सिंहनाद है जो एकान्त सिद्धान्त के दुर्दान्त वादि-गजेन्द्रों के मद को चूर्ण विचूर्ण कर देता है। तदेशतेतरपदेऽपि समा दिगेषा चित्रेतरत्वविषयेऽप्ययमेव पन्थाः। द्रव्यैकतावदविगीततया प्रतीते: क्षेत्रकताऽपि न च विभ्रमभाजनं स्यात् ।। ५९ ॥ एक वस्तु में रक्तत्व तथा अरक्तत्व के समावेश के सम्बन्ध में जो पद्धति बताई गई है वही तद्देशत्व तथा अतत्देशत्व एवं चित्रत्व तथा चित्रेतरत्व के एकत्र समावेश के सम्बन्ध में भी ग्रहण करनी चाहिए । अर्थात् इन विरोधी धर्मों के समावेश से कथंचिद् भिन्नता होते हुए भी वस्तु की एकता अक्षुण्ण समझी जानी चाहिये । इसी प्रकार जैसे पर्यायों के भेद से द्रव्य में भेद होने पर भी उसकी एकता भ्रम की वस्तु नहीं मानी जाती क्योंकि उसमें होनेवाली एकता की प्रतीति अविगीत-अबाधित रहती है, वैसे ही जिस क्षेत्र-स्थान में भिन्न भिन्न प्रकार के अनेक द्रव्य एकत्र हो एक दूसरे से सम्बद्ध होते हैं उस क्षेत्र की एकता भी भ्रम की वस्तु नहीं मानी जा सकती, क्योंकि संसर्गी द्रव्यों के भेद से भिन्नता होने पर भी उसमें होनेवाली एकता की प्रतीति अबाधित रहती है। तद्देशत्व तथा अतद्देशत्व के समावेश का अर्थ यह है कि कोई अवयवी द्रव्य अपने जिस अवयव में जब आश्रित होता है उसी समय वह उसमें अनाश्रित भी होता है, प्रश्न होगा यह कैसे ? उत्तर यह है कि अवयवी अपने अंशों सहित आश्रित नहीं हो सकता, क्योंकि यदि अपने समस्त अशों के साथ आश्रित होगा तो एक ही अवयव में उसकी समाप्ति हो जाने से अन्य अवयव में वह न रह सकेगा और यदि अपने किसी एक ही अंश के साथ रहेगा, तो किस अंश के साथ रहेगा ? यदि उस अवयव मे उसी अवयव-रूप अंश के Aho! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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